नई दिल्ली: भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने सुप्रीम कोर्ट से इलेक्टोरल बांड का विवरण उपलब्ध कराने के लिए 30 जून तक का समय मांगा है। एक ओर तो एसबीआई इसे बड़ी मेहनत का काम बताकर राजनैतिक दलों को गुप्त रूप से चंदा देने वालों नामों का खुलासा करने में सुस्ती बरत रहा है, वहीं दूसरी ओर अतीत में यही बैंक सरकार द्वारा मांगी गई ऐसी जानकारी मुहैया कराने में आश्चर्यजनक रूप से मुस्तैद रहा है।
पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने राजनैतिक चंदा लेने की इस विवादास्पद योजना को रद्द कर दिया था, जिसके तहत एक बांड के द्वारा राजनैतिक दलों को गुमनाम रूप से चंदा दिया जा सकता था। कोर्ट ने बांड जारी करने वाले बैंक एसबीआई से चंदा देने वालों की जानकारी सार्वजनिक करने के लिए भी कहा था। एसबीआई ने अदालत को बताया कि बांड के खरीदारों के साथ लाभार्थी पार्टियों का मिलान करने में उसे महीनों लग जाएंगे।
लेकिन इस मामले में पारदर्शिता को लेकर संघर्ष कर रहे कार्यकर्ता कमोडोर लोकेश बत्रा ने द कलेक्टिव को दस्तावेजों का जो जखीरा उपलब्ध कराया था, और जिसके आधार पर हमने 2019 और 2020 इलेक्टोरल बांड को लेकर कई खुलासे किए थे, उनमें कई ऐसे निर्णायक सबूत मिले जिनसे यह सिद्ध होता है कि एसबीआई ने कम से कम समय में सरकार को इलेक्टोरल बांड का डेटा उपलब्ध कराया। कभी-कभी तो केवल 48 घंटों में बैंक ने यह काम किया।
इन दस्तावेज़ों से पता चलता है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय के कहने पर, एसबीआई ने बांड को भुनाने की समय सीमा समाप्त होने के 48 घंटों के भीतर देश भर से इलेक्टोरल बांड पर डेटा एकत्र करके दिखाया। हर बार बांड की बिक्री की अवधि समाप्त होने के बाद, बैंक ने नियमित रूप से यह जानकारी केंद्रीय वित्त मंत्रालय को भेजी। द कलेक्टिव ने पाया कि इस तरह के संदेश 2020 तक भेजे जा रहे थे।
उक्त दस्तावेज़ों से पता चलता है कि एसबीआई राजनैतिक दलों द्वारा बेचे और भुनाए गए बांडों का ऑडिट ट्रैक, यानि लेनदेन का रिकॉर्ड रखता है। प्रत्येक बांड पर एक सीरियल नंबर होता है, जिसकी सहायता से यह रिकॉर्ड रखा जाता है। जब केंद्र सरकार ने 2018 में इलेक्टोरल बांड योजना शुरू की थी, तो बैंक ने इनका एक सीरियल नंबर रखने पर जोर दिया था।
केंद्र सरकार को इतनी तत्परता से इलेक्टोरल बांड के आंकड़े उपलब्ध कराने वाला बैंक ही अब अदालत से समय मांग रहा है। इसने कोर्ट में कहा कि बांड के डोनर्स और राजनैतिक दलों के डेटा अलग-अलग 'साइलो' में रखे गए हैं।
एसबीआई की दलील है कि बैंक की अलग-अलग शाखाओं पर बेचे जाने वाले बांड्स का डेटा सीलबंद लिफाफ़ों में उसके मुंबई-स्थित मुख्यालय को भेजा जाता है। इसी तरह, बांड भुनाने वाले राजनैतिक दलों का डेटा भी शाखाओं द्वारा सीलबंद लिफाफे में भेजा जाता है। बैंक ने कहा कि गुमनामी बनाए रखने के लिए बिक्री और नकदीकरण के आंकड़ों को अलग कर दिया जाता है। इसलिए, सबसे बड़े सरकारी बैंक के अनुसार, 2019 के बाद से जारी किए गए कुल 22,217 इलेक्टोरल बांड के खरीदारों का लाभार्थी पार्टियों से मिलान करने में कई महीने लगेंगे।
लेकिन दस्तावेजों से पता चलता है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने 2017 में आंतरिक रूप से स्वीकार किया था कि जब बांड बैंक में "नकदीकरण के लिए आते हैं", तो एसबीआई तुरंत डोनर और उस राजनैतिक दल का मिलान कर सकता है जिसे चंदा दिया जा रहा है, फिर भले ही उक्त बांड इलेक्ट्रॉनिक रूप से बेचे और भुनाए गए हों, या भौतिक रूप में।
ऐसा इसलिए मुमकिन था क्योंकि हर बांड को बेचने से एसबीआई शाखाओं द्वारा एक विस्तृत प्रक्रिया के तहत खरीदारों की पहचान की जाती थी, जिसे नो योर कस्टमर या केवाईसी प्रक्रिया कहा जाता है। बांड पर छिपे हुए सीरियल नंबरों की मौजूदगी भी इस कार्य में सहायक होती थी।
इलेक्टोरल बांड को लेकर सरकार पर राजनैतिक फंडिंग का एक अपारदर्शी मार्ग बनाने का आरोप लगा था। इस आरोप के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के सामने अपना बचाव करते हुए सरकार ने योजना को पारदर्शी बताया था और कहा था कि बांड सत्यापित केवाईसी के बाद ही बेचे जाते हैं और लेनदेन का रिकॉर्ड रखा जाता है।अदालत में योजना का बचाव कैसे किया जाए, इस पर अपने आंतरिक विचार-विमर्श में वित्त मंत्रालय ने कहा था, "खरीदार के रिकॉर्ड हमेशा बैंकिंग चैनल में उपलब्ध होते हैं और प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा आवश्यकता पड़ने पर उन्हें कभी भी प्राप्त किया जा सकता है।"
सुप्रीम कोर्ट में अतिरिक्त समय की मांग करने पर एसबीआई का उपहास करते हुए कई तरह के मीम बन रहे हैं, जिनमें कहा जा रहा है कि बैंक शीर्ष अदालत के साथ भी उसी तरह लापरवाही से पेश आ रहा है जैसा कि वह आम ग्राहकों के साथ करता है।
लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। जब यही सूचनाएं सरकार को देनी होती है तो बैंक गजब की फुर्ती दिखाता है, कभी-कभी तो एक फोन कॉल के दौरान ही मांगी गई जानकारी उपलब्ध करा दी जाती थी।
उदाहरण के लिए, 2018 में एक राजनैतिक दल ने कुछ ऐसे बांड्स को भुनाने की कोशिश की जिनकी अवधि समाप्त हो चुकी थी। इसके लिए पार्टी ने एसबीआई की नई दिल्ली शाखा से संपर्क किया। दिल्ली शाखा ने कुछ ही घंटों के भीतर मुंबई में एसबीआई कॉर्पोरेट कार्यालय की एक विशिष्ट टीम, ट्रांजेक्शन बैंकिंग यूनिट को इसकी सूचना दी।
प्रिंटिंग से लेकर भुनाए जाने तक हर इलेक्टोरल बांड को एक विशेष टीम द्वारा मॉनिटर किया जाता था, जिसे पहले टीबीयू कहा जाता था। यह टीम शॉर्ट नोटिस पर भी इलेक्टोरल बांड से जुड़ी जानकारी एकत्र करके वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को सूचित करती थी।
कानून के अनुसार, एक इलेक्टोरल बांड की शेल्फ लाइफ केवल 15 दिनों की होती है, इसलिए एसबीआई कॉर्पोरेट कार्यालय ने वित्त मंत्रालय से सलाह मांगी। मंत्रालय ने तुरंत जवाब दिया कि उक्त राजनैतिक दल को बांड भुनाने की अनुमति दे दी जानी चाहिए, भले ही उनकी समय सीमा समाप्त हो गई हो। कॉर्पोरेट कार्यालय ने बिजली की गति से यह जानकारी दिल्ली कार्यालय तक पहुंचा दी और ऐसा ही करने के लिए कहा। यह सब 24 घंटों के भीतर हुआ, जिससे उक्त राजनैतिक दल को समाप्त हो चुके इलेक्टोरल बांड को भुनाने की मंजूरी मिल गई।
जिस पार्टी को यह सहूलियत दी गई, उसके नाम का उल्लेख न तो वित्त मंत्रालय ने अपने आधिकारिक रिकॉर्ड में किया, और न ही एसबीआई ने। लेकिन एसबीआई को पता था और वित्त मंत्रालय को सूचित किया गया था कि पार्टी के पास 1 करोड़ रुपए के 10 समाप्त हो चुके बांड थे और यह भी पता था कि उन्हें दिल्ली में किन-किन तारीखों को खरीदा गया था।
हालांकि एसबीआई औपचारिक रूप से एक स्वतंत्र इकाई है, लेकिन कई अवसरों पर यह सरकार के एक्सटेंशन की तरह ही काम करता है। 2018 में इसने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत बांड पर डेटा साझा करने के लिए भी वित्त मंत्रालय से अनुमति ली।
इस सबसे यह सवाल उठना लाज़िमी है कि शीर्ष अदालत द्वारा मांगी गई जानकारी देने में बैंक देरी क्यों कर रहा है।
इसका जवाब शायद सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी सुभाष चंद्र गर्ग दे सकते हैं। वह 2017-2018 के दौरान वित्त और आर्थिक मामलों के सचिव थे, और उन्हींकी देखरेख में इलेक्टोरल बांड योजना का निर्माण और कार्यान्वयन हुआ।
6 मार्च को मोजो स्टोरी ने गर्ग से पूछा कि क्या एसबीआई के पास अधिक समय मांगने का कोई उचित कारण है। उन्होंने कहा, "मेरे विचार से एसबीआई ने (उच्चतम न्यायालय के समक्ष) सबसे कमजोर बहाना बनाया है... इस जानकारी को प्रस्तुत करने के लिए एसबीआई को किसी साइलो को आपस में जोड़ने की जरूरत नहीं है... ऐसा करने में कोई समय नहीं लगना चाहिए। एसबीआई का कहना है कि वह बांड के खरीदारों और प्राप्तकर्ताओं का मिलान करेंगे। हालांकि इसकी जरूरत नहीं है, लेकिन ऐसा करने में भी कोई समय नहीं लगना चाहिए। जैसा कि मैंने पहले बताया, प्रत्येक बांड में एक नंबर होता है इसलिए यदि आप इस नंबर के अनुसार विवरण को क्रमबद्ध करेंगे तो आप बहुत आसानी से सारी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं...शायद एसबीआई ने किसी दबाव में यह याचिका दायर की है।”
गर्ग की बात पर भरोसा किया जा सकता है। क्योंकि आखिरकार एसबीआई की मांग के अनुसार, इलेक्टोरल बांड पर छिपे हुए सीरियल नंबरों को शामिल करने का काम उन्हीं की निगरानी में हुआ था।
We have hit a crisis. We don't have money to pay our journalists.
Without urgent support, our investigative reporting is at the risk of disappearing. If you believe in fearless, reader-funded journalism, now is the time to act.
Every contribution matters. Help keep us going.
Donate today.