
नई दिल्ली: पांच साल पहले, नरेंद्र मोदी सरकार ने बजट में एक वादा करके सुर्खियां बटोरी थीं।
जुलाई 2019 में अपने पहले बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा, "भारत सरकार ने लगभग तीन करोड़ खुदरा व्यापारियों और छोटे दुकानदारों को पेंशन का लाभ देने का फैसला किया है।"
सदन में वाहवाही के बीच जैसे ही उन्होंने इस योजना का नाम -- प्रधानमंत्री करम योगी मान धन -- घोषित किया, कैमरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर घूम गया। सरकार ने योजना के पहले वर्ष में 750 करोड़ रुपए खर्च करने का वादा किया था, जिसमें 3,000 रुपए की मासिक पेंशन का वादा किया गया था।
हालांकि, जैसे-जैसे योजना को लेकर उत्साह कम हुआ, सरकार की प्रतिबद्धता भी खत्म हो गई। योजना के पहले वर्ष में सरकार ने इसपर केवल 155.9 करोड़ रुपए खर्च किए, यानी फंडिंग में 594 करोड़ रुपए का भारी अंतर रह गया।
अगले तीन सालों में अनुमानित खर्च बहुत कम हो गया। बजट के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, पिछले वित्तीय वर्ष में केवल 3 करोड़ रुपए आवंटित किए गए, जिसमें से कार्यक्रम के लिए केवल 10 लाख रुपए खर्च किए गए। योजना शुरू होने के बाद से पांच साल की अवधि के भीतर सरकार ने 1,133 करोड़ रुपए खर्च करने का वादा किया था, लेकिन वास्तव में केवल 162 करोड़ रुपए आवंटित किए गए -- वादे की राशि का केवल 14%। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, जनवरी 2023 तक इस योजना के 50,000 से अधिक लाभार्थी थे।
मार्च 2023 में संसदीय स्थायी समिति ने सरकार से पूछा कि पेंशन योजना विफल क्यों हुई। सरकार ने कहा कि पेंशन योजना के साथ समान नाम वाली एक अन्य योजना भी चल रही थी।
सरकार के अनुसार, लोगों ने प्रधान मंत्री करम योगी मान धन योजना को प्रधान मंत्री श्रम योगी मान धन नामक एक अन्य पेंशन योजना के साथ मिलाकर देखा, जिसे ठीक चार महीने पहले शुरू किया गया था। सरकार ने विफलता पर सवालों को टालते हुए दुर्लभ रूप से माना कि नई अखिल भारतीय योजनाओं का नाम बेहतर हो सकता है।
प्रधान मंत्री श्रम योगी मान धन को संभावित रूप से असंगठित क्षेत्र के 42 करोड़ श्रमिकों तक पहुंचना था। लेकिन दस्तावेज़ों से पता चलता है कि यह पेंशन योजना भी विफल रही थी। शुरुआत के बाद से तीन वर्षों में यह 42 करोड़ संभावित लाभार्थियों के मुकाबले केवल 43 लाख तक ही पहुंच पाई।
जब संसदीय स्थायी समिति ने सरकार से सवाल किया, तो उसने एक तीसरी ही पेंशन योजना पर दोष मढ़ दिया जो पहले शुरू की गई थी। इस योजना का नाम था अटल पेंशन योजना, जो 2015 में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए शुरू की गई थी। इसके बाद आने वाली दोनों पेंशन योजनाएं जिनके लिए शुरू की गईं थीं, वह पहले से ही इस योजना के दायरे में आते थे।
अटल पेंशन योजना का रिकॉर्ड भी उतना अच्छा नहीं है। द रिपोर्टर्स कलेक्टिव द्वारा स्वतंत्र शोध और जांच से पता चला है कि बैंक जबरदस्ती लोगों को उनकी अनुमति के बिना अटल पेंशन योजना में नामांकित कर रहे थे। इससे सरकार की तीखी आलोचना हुई, कि वह योजना की सफलता को गलत तरीके से प्रदर्शित करने के लिए नामांकन की संख्या को कृत्रिम रूप से बढ़ा रही है।
सरकार ने अपनी पेंशन योजनाओं का मूल्यांकन करने का काम एक थिंक टैंक को सौंपा था। उसने अपनी रिपोर्ट में श्रम योगी मान धन को बंद कर इसे अटल पेंशन योजना में मिलाने की सिफारिश की। इसके अतिरिक्त, मंत्रालय स्वयं खुदरा व्यापारियों की पेंशन योजना को असंगठित श्रमिकों की पेंशन योजना के साथ विलय करने पर विचार कर रहा था।

यह तीनों पेंशन योजनाएं अलग-अलग स्तर पर विफल हुईं। लेकिन इन तीनों से एक बात साफ़ होती है, कि नरेंद्र मोदी की रुचि बिलबोर्ड गवर्नेंस में है। यानि सुर्खियां बटोरने के लिए लोक लुभावन परियोजनाएं शुरू करना और इन्हें तबतक जारी रखना जबतक कि लोगों में इसको लेकर एक स्थाई सकारात्मक भावना पैदा हो जाए। लेकिन प्रारंभिक उत्साह और सवाल-जवाब खत्म होते ही इन योजनाओं को बीच में छोड़ दिया जाता है।
द कलेक्टिव ने 906 केंद्रीय योजनाओं के बजटीय आवंटन की समीक्षा की, जिनकी घोषणा केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2019-2020 से वित्त वर्ष 2023-24 तक पांच वर्षों के बजटों में की थी, ताकि पता लगाया जा सके कि मोदी सरकार ने उन योजनाओं पर कितना खर्च किया। हमने पाया कि सरकार ने 906 योजनाओं में से 651 या 71.9% योजनाओं को कम फंड दिया।
प्रत्येक पांच योजनाओं में से एक के लिए सरकार ने अपने वादे से आधा या उससे कम खर्च किया।
सबसे बड़ी कटौती कल्याणकारी योजनाओं में की गई थी। कम से कम 75% कल्याणकारी योजनाओं में सरकार के वादे से कम पैसा दिया गया। इसके बाद इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं जैसे ट्रैक नवीनीकरण, रोडवेज योजनाएं, नवीकरणीय ऊर्जा ग्रिड आदि में बजट में किए गए वादे से कम फंड दिया गया। समीक्षा की गई कुल योजनाओं में से लगभग 73% इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं के लिए सरकार ने बजट में आवंटित पैसा घटा दिया।
बजट से कम खर्च में क्रमशः तीसरे, चौथे और पांचवें स्थान पर रक्षा, उद्योग और पीएसयू से संबंधित योजनाएं रही । द कलेक्टिव ने सामान्य समझ के आधार पर योजनाओं को इन श्रेणियों में विभाजित किया क्योंकि ये आधिकारिक तौर पर परिभाषित शब्द नहीं हैं। कई योजनाएं एक से अधिक श्रेणी में आ सकती हैं।
जब सरकार कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त कर दे रही है और इंफ्रास्ट्रक्टर फंड घटा दे रही है, तब भी वो यह धारणा कैसे स्थापित कर पा रही है कि वह लगातार नई नीतियां बना रही है और बहुत कुछ हो रहा है?
सरकार की एक तरकीब यह है कि मौजूदा योजनाओं, जिनमें से कुछ दशकों पुरानी हैं, को कुछ बदलावों के साथ दोबारा ब्रांड किया जाए, उनका नाम बदला जाए, नए तरीके से पेश किया जाए और उनका पुनर्निर्माण किया जाए।
उदाहरण के लिए, द कलेक्टिव की पिछली जांच से पता चला था कि कैसे सरकार ने चुनावों के दौरान पीएम आशा योजना को दिखावे के लिए इस्तेमाल किया था। सरकार ने दालों और तिलहनों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने के लिए लाई गई आशा योजना पर केवल 2019 और 2024 के चुनावों के आसपास पैसा खर्च किया और इस बीच एक भी रुपया नहीं खर्च किया। भाजपा ने 2019 के घोषणापत्र में भी किसानों की आय दोगुनी करने के लिए जिम्मेदार योजनाओं में से एक के रूप में इसका जिक्र किया। वास्तविक काम यूपीए युग की एक पुरानी प्रत्यक्ष खरीद योजना ने किया था, जिसे पीएम आशा के तहत एक नई योजना के रूप में प्रस्तुत किया गया था। भाजपा ने 2024 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा अपने घोषणापत्र से पूरी तरह हटा दिया।
जबकि अधिकांश योजनाओं के लिए आवंटन पांच वर्षों के दौरान किए गए वादे से कम रहा, सभी 906 योजनाओं का कुल वास्तविक व्यय कुल बजट अनुमान से अधिक है। डेटा से पता चलता है कि इसके दो कारण हैं: पहला, कोविड से संबंधित योजनाओं पर सरकारी खर्च बजट अनुमान से बहुत अधिक था। हालांकि, यह सरकार को बरी नहीं करता, क्योंकि महामारी से पहले और बाद में भी फंडिंग अपर्याप्त रही।
दूसरे, जैसा कि पहले बताया गया था, सालों तक बजट अनुमानों में कटौती के बाद, सरकार ने 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले कुछ कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च बढ़ा दिया।
आइए उन केंद्रीय योजनाओं पर बारीकी से नजर डालें जो पूरी तरह से केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित हैं और पता लगाएं कि उनका प्रदर्शन कैसा रहा और क्या सरकार ने उतना खर्च किया जितना उसने कहा था। हमने केंद्र की योजनाओं पर ध्यान केंद्रित किया क्योंकि केंद्र सरकार उनकी सफलता या विफलता के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है।

कृषि
किसानों की आय दोगुनी करने के लिए कई योजनाएं लाई गईं, जिनमें बजट में उल्लिखित शुरुआती वादों की तुलना में भारी कटौती की गई और खर्च भी न्यूनतम किया गया।
द कलेक्टिव ने अपनी पिछली रिपोर्ट में इन योजनाओं में से एक, पीएम आशा का विश्लेषण किया था। इस फसल मूल्य समर्थन योजना पर वास्तविक खर्च केवल 2019 और 2024 के लोकसभा चुनावों के आसपास के महीनों में देखा गया। दो आम चुनावों के बीच तीन साल तक सरकार ने इस योजना पर एक भी रुपया खर्च नहीं किया।
दूसरी योजना, प्रधानमंत्री किसान मान धन योजना, छोटे और हाशिए पर पड़े किसानों के लिए पेंशन योजना है। करम योगी मान धन और श्रम योगी मान धन की तरह, इस योजना में भी लाभार्थी कम हैं। 2019 के बाद से केवल 7.8% किसानों ने इस योजना में नामांकन किया है जिसमें 3 करोड़ किसानों को लक्षित किया गया है। आंकड़ों से पता चलता है कि वित्त वर्ष 2023-24 को छोड़कर सभी वर्षों में सरकार ने अपने बजट से कम खर्च किया।
2020 में 10,000 किसान उत्पादक संगठनों के गठन और संवर्धन की योजना शुरू होने के बाद से, सरकार ने पिछले चार वर्षों में अपने वादे से बहुत कम खर्च किया है। इस योजना का उद्देश्य किसानों को सौदेबाजी की शक्ति बढ़ाने, उत्पादन लागत कम करने और अपनी फसलें एक साथ बेचकर अधिक पैसा कमाने में मदद करना है।
स्वास्थ्य
2021 में कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान, केंद्र सरकार ने पीएम-आयुष्मान भारत हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर मिशन की घोषणा की। इसे 2005 के बाद से सार्वजनिक स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए भारत की सबसे बड़ी योजना बताया जाता है। यह योजना राज्यों के साथ साझेदारी में चलती है, इसका कुछ भाग पूरी तरह से केंद्र द्वारा संचालित होता है। अपने वादे को पूरा करने के लिए, केंद्र सरकार ने क्रिटिकल केयर के लिए राष्ट्रीय संस्थान स्थापित करने और रोग अनुसंधान केंद्रों को मजबूत करने के लिए 5 वर्षों में 9,339 करोड़ रुपए से अधिक खर्च करने की योजना बनाई, लेकिन तीन वर्ष बाद भी नियोजित राशि का केवल 14.7%, यानि 1,373 करोड़ रुपए ही खर्च किए हैं।
पेंशन योजनाएं
सरकार ने 2019 में छोटे दुकानदारों के लिए पेंशन योजना, पीएम करम योगी मान धन पर 750 करोड़ रुपए खर्च करने का वादा किया था। लेकिन दो साल बाद, असलियत सामने आई: सरकार ने आवंटित राशि का केवल 20.7%, यानि 155.7 करोड़ रुपए खर्च किया था। नवीनतम वित्तीय वर्ष में भी सरकार ने दावा किया कि वह 3 करोड़ रुपये खर्च करेगी लेकिन इसका केवल 3.3% ही खर्च किया।
सरकार ने खुद माना कि कई पेंशन योजनाएं एक साथ आईं और उन्होंने एक-दूसरे को कमजोर किया। उदाहरण के लिए, करम योगी मान धन से चार महीने पहले शुरू की गई पीएम श्रम योगी मान धन योजना में सरकार ने नवीनतम वित्तीय वर्ष में वादा की गई राशि का केवल 58.6% खर्च किया। जबकि श्रम पर संसद की स्थायी समिति ने योजना के कमजोर कवरेज के लिए श्रम मंत्रालय की खिंचाई की थी।
शिक्षा
अपने 2019 के चुनावी घोषणापत्र में, भाजपा ने 50% से अधिक अनुसूचित जनजाति की आबादी वाले ब्लॉकों में एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय खोलने का वादा किया था। स्कूल का उद्देश्य आदिवासियों के बच्चों तक शिक्षा की पहुंच में सुधार करना था। जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने 2025-26 तक 740 स्कूलों का लक्ष्य रखा था, दिसंबर 2023 तक 401 स्कूलों के साथ लक्ष्य का 54% हासिल किया गया।
धीमी गति के बावजूद, 2024 का लोकसभा चुनाव करीब आने तक बजट अनुमानों में बढ़ोतरी नहीं देखी गई। सरकार ने 2023-2024 में 5,943 करोड़ रुपये खर्च करने का वादा किया था, लेकिन संसद की स्थायी समिति की आलोचना के बावजूद, अब तक फंड का केवल 41.6% ही खर्च किया है।
समिति ने कहा कि उसे "आशंका" है कि सरकार 2025-26 तक लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएगी, क्योंकि ऐसा एक स्कूल बनाने में 2.5 साल लगते हैं। समिति ने कहा कि मंत्रालय ने उसके पास मौजूद सारे पैसे का उपयोग नहीं किया।
इसी तरह, सरकार ने अनुसूचित जाति के छात्रों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय फैलोशिप की फंडिंग भी कम की। संसद की स्थायी समिति ने दिसंबर 2023 में इस कमी को उजागर किया।

डेटा से पता चलता है कि फ़ेलोशिप पर वास्तविक खर्च कम हो रहा है। जहां 2019-20 में सरकार ने बजट में किए गए वादे का केवल 68% खर्च किया, वहीं 2021-22 तक यह घटकर 40% रह गया। यहां तक कि पिछले वर्ष के बैकलॉग को शामिल करने के बाद भी 2018-19 की तुलना में 2022-23 में प्रदान की जाने वाली फेलोशिप की संख्या में 30% की गिरावट देखी गई।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था
अपने पहले बजट भाषण में, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बताया कि कैसे सरकार एस्पायर नामक योजना के माध्यम से कृषि-ग्रामीण उद्योग क्षेत्रों में 75,000 कुशल ग्रामीण उद्यमी विकसित करने में मदद करेगी। सरकार ने अगले चार वित्तीय वर्षों में संचयी रूप से 137 करोड़ रुपए खर्च करने की प्रतिबद्धता जताई। हालांकि, इसने इस अवधि में केवल 31 करोड़ रुपए खर्च किए हैं, जो कि वादे की राशि का सिर्फ 22.7% है।
एस्पायर के साथ-साथ, सीतारमण ने पारंपरिक उद्योगों को उन्नत बनाने की योजना के रूप में स्फूर्ति का भी उल्लेख किया। 2022-23 तक स्फूर्ति पर खर्च लगातार बढ़ता गया, जब सरकार ने 334 करोड़ रुपए का लक्ष्य रखा था लेकिन केवल 1.95 करोड़ रुपए खर्च किए। इसी तरह, अगले वित्तीय वर्ष में सरकार ने 280 करोड़ रुपए के बजट अनुमान के मुकाबले 2.5 करोड़ रुपए खर्च किए।
