नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में किसानों के एक छोटे से गांव अमीनगर में सूअर पालन करने वाले अनिल कुमार इस साल लगातार घाटा झेल रहे हैं। मार्च में उनके छोटे सूअरबाड़े (पिग फार्म) में एक रहस्यमय बीमारी फैल गई और कुछ ही दिनों में उनके सभी सूअर मर गए। इस बीमारी की वजह से केवल एक महीने के भीतर कुमार के 110 सूअरों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
कुमार वाल्मिकी जाति से हैं। हिंदू जाति व्यवस्था में वाल्मिकी जाति को सबसे निचले पायदान की जाति माना जाता है। इस समुदाय के लोगों को अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए साफ़-सफ़ाई का काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। और जब ऐसी अनौपचारिक नौकरियों की कमी होती है तो इस समुदाय के लोग अक्सर सूअर पालन जैसे आय के दूसरे स्रोतों का सहारा लेते हैं। इस बीमारी के प्रकोप से अमीनगर निवासी, विशेषकर सूअर पालन पर निर्भर दलित समुदाय की कमजोरियां खुल कर सामने आ गयी हैं।
ये पूरी त्रासदी एक बड़े मुद्दे का हिस्सा है। जब 2020 की शुरुआत से दुनिया मनुष्यों को प्रभावित करने वाली एक महामारी से जूझ रही थी तब से सूअरों पर भी "नीली" मौत मंडरा रही है -- इस बीमारी से मरने वाले सूअरों का शरीर नीला पड़ जाता है। कुमार की ही तरह भारत में सूअर पालन काफी हद तक दलित और आदिवासी समुदायों तक ही सीमित है। सूअर पालन को तबाह करने वाला यह मूक संक्रामक रोग उन समुदायों के लिए और अधिक आर्थिक कठिनाइयां लेकर आया है जिन समुदायों ने महामारी के दौरान अपना अनौपचारिक क्षेत्र का रोजगार खो दिया था।
जब एक ओर समाज का निचला तबका उपरोक्त समस्या से संघर्ष कर रहा था उत्तर भारत में गाय पालक मवेशियों को होने वाली एक और बीमारी से परेशान थे। गाय पालन में ज्यादातर अगड़ी और प्रभावशाली जातियों का प्रभुत्व है और उस समय लंपी स्किन डिजीज (एलएसडी) नाम की एक विषाणु जनक बीमारी गायों में फैल रही थी। मीडिया में इस बीमारी को व्यापक रूप से कवर किया गया था।
कुछ आधिकारिक दस्तावेजों की द रिपोर्टर्स कलेक्टिव के द्वारा की गयी पड़ताल के अनुसार पशुधन में होने वाली इन बीमारियों को लेकर भारत सरकार की प्रतिक्रिया में भारी असमानता और सुनियोजित भेदभाव दिखाई देता है। जहां एक ओर केंद्र सरकार ने गायों में एलएसडी संक्रमण को रोकने के लिए हर संभव प्रयास किया -- जबकि इस बीमारी में मृत्यु दर अपेक्षाकृत कम है -- वहीं मुख्य रूप से हाशिए पर रहने वाले दलित और आदिवासी समुदायों से आने वाले सूअर पालकों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया। आगरा, बुलंदशहर, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर और दिल्ली में दलित बस्तियों का दौरा करके द कलेक्टिव ने जो जांच की उससे सरकार के द्वारा की गयी उपेक्षा की कलई खुल गयी।
भारत में कुल पालतू सूअरों में से लगभग 25% पूर्वोत्तर के राज्यों में पाले जाते हैं। साल 2012 में देश के कुल सूअरों में से लगभग 13% सूअर उत्तर प्रदेश में थे। लेकिन 2019 आते- आते उत्तर प्रदेश में देश के मात्र 4.5% सुअर रह गए। यह गिरावट किसी भी अन्य राज्य से अधिक है। उत्तर प्रदेश के कई सूअरबाड़ों का दौरा करने के बाद इस रिपोर्टर ने पाया कि कैसे इस बीमारी के प्रकोप ने सूअर पालकों की चुनौतियों को बढ़ा दिया है।
पड़ताल में हमें ये पता चला की सूअर दो अत्यधिक संक्रामक बीमारियों से जूझ रहे थे: क्लासिकल स्वाइन फीवर (सीएसएफ) और अफ्रीकन स्वाइन फीवर (एएसएफ)। सीएसएफ और एएसएफ दोनों रक्तस्रावी रोग हैं जिनसे अत्यधिक आंतरिक रक्तस्राव होता हैं और जिनमे मृत्यु की दर लगभग सौ प्रतिशत है।
सरकार की तरफ से इन दोनों बीमारियों की जांच पर्याप्त रूप से नहीं की गयी जिससे स्थिति और भी खराब हो गई। सरकार की तरफ से की गयी उपेक्षा केवल संसाधनों और सहायता की कमी तक सीमित नहीं थी। हालांकि सीएसएफ और एएसएफ दोनों चिकित्सकीय रूप से अलग-अलग बीमारियां हैं फिर भी दोनों के लक्षण एक जैसे होने की वजह से बीमारी के परीक्षण में गलती हो जाने का अंदेशा बना रहता है जिससे भारत में सीएसएफ के फैलाव को कम करके आंकने की संभावना बढ़ जाती है।
सूअरों की गिनती और घाटा
भारत में हर पांच साल में होने वाली पशुधन गणना में सूअरों की आबादी देखकर स्थिति गंभीर नज़र आती है। पिछली दो गणनाओं की राह पर चलते हुए 2019 में हुई 20वीं पशुधन गणना में भी सूअरों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई थी। 18वीं, 19वीं और 20वीं पशुधन गणना में सूअरों की संख्या में क्रमशः 17.6%, 7.54% और 12.0% की गिरावट देखी गई थी।
यूपी में दलित और आदिवासी समुदाय के लोग अक्सर भूमिहीन होते हैं और अनौपचारिक रूप से दिहाड़ी मजदूर का काम करते हैं इसलिए सूअर पालन उनके लिए वित्तीय सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। सूअर पालन से होने वाली आय अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होती है। उदाहरण के तौर पर पश्चिमी यूपी में एक सुअर से लगभग 25,000 रुपए की कमाई हो सकती हैं जो की सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए एक बड़ी रकम है। इसलिए, जब अनिल कुमार के 110 सूअरों की मौत हुई तो उन्होंने अनुमान लगाया कि एक महीने के भीतर उन्हें कम से कम 25 लाख रुपए का नुकसान हुआ है। सूअरों की पहले से ही घटती आबादी के बीच 2020 के बाद से उनकी सिलसिलेवार मौतों ने इन लोगों की आजीविका पर संकट खड़ा कर दिया है।
यूपी में सूअर पालन का व्यवसाय काफी हद तक दलितों की कुछ नामित जातियों तक ही सीमित है जिनमें वाल्मिकी, भंगी और मुसहर शामिल हैं -- लेकिन मुख्य रूप से यह काम पासी समुदाय के लोग करते हैं। यूपी में पासी समुदाय की दूसरी सबसे बड़ी आबादी रायबरेली में रहती है और राज्य में सूअरों की सबसे बड़ी आबादी भी इसी जिले में है, यह तथ्य यह इंगित करता है कि सूअर पालन के कार्य और हिंदू जाति व्यवस्था के बीच गहरा संबंध है।
आगरा जिले की कुल आबादी में से लगभग एक चौथाई लोग अनुसूचित जाति से आते हैं और यहां यूपी के सूअरों की तीसरी सबसे बड़ी आबादी का बसेरा है। आगरा के पश्चिमी हिस्से में स्थित व्यावसायिक क्षेत्र लोहा मंडी में बहने वाले प्रदूषित नाले के किनारे वाल्मिकी परिवार रहते हैं। यहां इस रिपोर्टर की मुलाकात 28 वर्षीय व्यक्ति प्रशांत वाल्मिकी से हुई। प्रशांत के पास कॉलेज की डिग्री और औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान से डिप्लोमा है लेकिन वह अभी भी एक स्थिर रोजगार की तलाश में संघर्ष कर रहे हैं। कई दूसरे दलित युवकों की तरह ही आर्थिक प्रगति हासिल करने की राह में प्रशांत के लिए भी कॉलेज की डिग्री नाकाफी साबित हुई है। रोज़गार की संभावनाएं सीमित होने के कारण प्रशांत ने घर की छत पर एक छोटा सा सूअरबाड़ा स्थापित किया था। जनवरी 2024 में लगभग 1.2 लाख रुपए का निवेश कर उन्होंने 20 सूअर के बच्चे खरीदे थे लेकिन तीन महीने के भीतर वे सभी मर गए।
प्रशांत ने द कलेक्टिव को बताया की उनके सुअरों को "पहले से कोई समस्या नहीं थी लेकिन फिर उन्हें बुखार हो गया और उसके बाद उनका शरीर लाल और फिर हल्का नीला हो गया और अंततः वे सभी मर गए"।
जानकारी का अभाव
सीएसएफ का पहला संदिग्ध मामला 1944 में यूपी के अलीगढ़ में पाया गया था। भारत सरकार का अनुमान है कि उच्च मृत्यु दर वाली इस बीमारी से सालाना लगभग 430 करोड़ रुपए का नुकसान होता है। इसके विपरीत, भारत में एएसएफ का आगमन हाल ही में हुआ है। पहली बार अप्रैल 2020 में पूर्वोत्तर के राज्यों में इसका पता चला था। तब से अब तक एएसएफ पूरे देश में फैल गया और आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार एएसएफ से सूअर पालकों को 2023 तक कुल 26.54 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है।
उचित जांच की कमी के चलते भारत में बड़े पैमाने पर हो रही सूअरों की मौतों के असली कारण पर परदा पड़ा हुआ है। यूपी में सूअर पालकों के साथ बातचीत से पता चलता है की बीमारी की पहचान करना कितना मुश्किल है। व्यापक आधिकारिक परीक्षण की कमी के कारण निश्चित रूप से यह बता पाना असंभव हो गया है कि दोनों में से कौन सी बीमारी से सूअर मर रहे हैं। विश्वसनीय आधिकारिक आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण समस्या और भी जटिल हो गयी है। हालांकि आधिकारिक आंकड़े ना होने का एक कारण ये भी है कि सूअर पालक अपने बीमार सुअरों की जानकारी साझा करने की बजाये घाटे से बचने के लिए उनको बेचना पसंद करते हैं।
विश्वसनीय शोध से पता चलता है कि भारत में 92.06% सूअरों की मौत का संभावित कारण सीएसएफ हो सकता है। विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूओएएच) के अनुसार 1996 और 2015 के बीच भारत में 2,618 बार सीएसएफ का प्रकोप देखा गया था, जिसका चरम 2011 से 2015 के बीच में आया था। हाल ही में पड़ोसी बांग्लादेश से लेकर जापान तक में सीएसएफ का प्रकोप इसके वैश्विक और क्षेत्रीय फैलाव का संकेत देता है।
डब्ल्यूओएएच, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) जैसा ही वैश्विक संगठन है जो पशु स्वास्थ्य को समर्पित है। भारत डब्ल्यूओएएच को एएसएफ और एलएसडी संक्रमण के प्रकोप की रिपोर्ट तो देता है लेकिन भारत में चल रहे सीएसएफ के प्रकोप की रिपोर्ट डब्ल्यूओएएच के आंकड़ों में देखने पर दिखाई नहीं देती है। मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय (एफएएचडी) ने द कलेक्टिव को बताया कि वह सीएसएफ से होने वाली मौतों की रिपोर्ट डब्ल्यूओएएच को दर्ज तो कराता है लेकिन शायद किसी गड़बड़ी के कारण वह डब्ल्यूओएएच के पोर्टल पर दिखाई नहीं दे रही हैं।
द कलेक्टिव ने पाया कि एएसएफ और सीएसएफ दोनों की जांच की दर बहुत कम है और मंत्रालय की रिपोर्ट में दोनों बीमारियों से होने वाली प्रत्येक मौत में कोई स्पष्ट अंतर नहीं किया जाता है इसलिए बीमारी के निदान के लिए कोई भी प्रभावी कदम उठाना कठिन है।
सरकार द्वारा संचालित भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान से सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार यूपी में एएसएफ का पता लगाने के लिए 2022-23 से 2023-24 के बीच 98 सैंपल जमा किये गए थे। वहीं सीएसएफ की जांच के लिए एक दशक में 128 सैंपल जमा किये गए। इन आंकड़ों से पता चलता है कि टेस्टिंग की दर कम रही है लेकिन 2023-24 में जांच में हुई उल्लेखनीय वृद्धि को देखकर ऐसा प्रतीत होता है की शायद राज्य भर में बड़े पैमाने पर हुई मौतों की सूचना के बाद जांच की गति बढ़ा दी गई है।
फंड में कटौती ने बढ़ाई समस्या
सीएसएफ भारत में 1940 के दशक से मौजूद है फिर भी इसकी रोकथाम पर बहुत कम शोध हुए हैं। इस उपेक्षा की एक बड़ी वजह यह हो सकती है कि सूअर पालक मुख्य रूप से दलित और आदिवासी समुदायों से आते हैं और सामाजिक रूप से हाशिए पर रहते हैं जिन पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है।
सीएसएफ का अध्ययन करने का एक महत्वपूर्ण प्रयास 2009 में हुआ था। पूर्वोत्तर में व्यापक सूअर पालन को देखते हुए मई 2009 में भारत सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय पशुधन अनुसंधान संस्थान और रतन टाटा ट्रस्ट के साथ मिलकर कुछ चुनिंदा पूर्वोत्तर के राज्यों में अनुसंधान शुरू किया था। इस अनुसंधान ने सीएसएफ नियंत्रण के लिए केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित योजना, क्लासिकल स्वाइन फीवर कंट्रोल प्रोग्राम (सीएसएफ-सीपी) का मार्ग प्रशस्त किया जिसे 2012 में 12वीं पंचवर्षीय योजना में शामिल किया गया था।
राज्यों को दिए गए तकनीकी दिशानिर्देश के अनुसार “एक नए घटक अर्थात्; 'क्लासिकल स्वाइन फीवर कंट्रोल प्रोग्राम (सीएसएफ-सीपी)' को 100% केंद्रीय सहायता के साथ शामिल किया गया” था। सीएसएफ-सीपी योजना की सफलता सूअरों के व्यापक टीकाकरण अभियान पर केंद्रित थी।
सीएसएफ-सीपी अभियान की कल्पना कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए II सरकार के दौरान की गई थी। 2014 में इसे देश के मुख्य पशु रोग नियंत्रण कार्यक्रम, पशुधन स्वास्थ्य और रोग नियंत्रण (एलएच एंड डीसी) के साथ मिला दिया गया था। शुरुआत में यह कार्यक्रम पूर्वोत्तर के राज्यों पर केंद्रित था और सीएसएफ वैक्सीन की उपलब्धता के आधार पर इसे अन्य राज्यों में भी लागू किया जाना था।
हालांकि, 2014-15 में जब सीएसएफ-सीपी लागू हुआ तब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्ता में आने से राजनीतिक परिदृश्य बदल गया। सरकार बदलने से बुनियादी नीतिगत बदलाव भी आए। योजना आयोग जो पंचवर्षीय योजनाओं की देखरेख करता था, जिसके अंतर्गत सीएसएफ-सीपी संचालित होती थी, उसको भंग कर दिया गया और उसकी जगह नीति आयोग की स्थापना कर दी गई। और 2017 में जब 12वीं पंचवर्षीय योजना समाप्त हुई तो मोदी सरकार ने आज़ादी के बाद से चली आ रही पंचवर्षीय योजनाओं की पूरी व्यवस्था को ही ख़त्म कर दिया।
पंचवर्षीय योजनाओं की समाप्ति के साथ ही पशु रोग नियंत्रण कार्यक्रम के बजट में भारी कटौती की गई। वर्ष 2017-18 में पशु रोग नियंत्रण कार्यक्रम का बजट 298.40 करोड़ रुपए था जो 2020-21 में घटकर 194.45 करोड़ रुपए हो गया। बजट की इस कटौती ने सीएसएफ-सीपी सहित पशु स्वास्थ्य योजनाओं पर काफी असर डाला।
2019 के चुनावी घोषणापत्र में भाजपा ने पशुओं की नियमित स्वास्थ्य जांच का वादा किया था लेकिन बजट की इस भारी कटौती के कारण पशु रोगों की जांच की राष्ट्रीय पशु रोग रिपोर्टिंग प्रणाली का बजट 2020-21 आते- आते घटाकर शून्य कर दिया गया।
सरकार द्वारा पशु रोग नियंत्रण के लिए आवंटित धन का लगभग 100% उपयोग करने के दावों के बावजूद खेती के विषय पर 30वीं स्थायी समिति ने मंत्रालय के "भ्रामक दृष्टिकोण" के बारे में गंभीर चिंता जताई और "भौतिक और वित्तीय लक्ष्यों की प्राप्ति में विफलता" के लिए स्पष्टीकरण मांगा।
30वीं स्थायी समिति ने पशु रोग नियंत्रण कार्यक्रम एलएच एंड डीसी के एक अन्य घटक, पशु चिकित्सा अस्पतालों और औषधालयों की स्थापना और मौजूदा का सुदृढ़ीकरण (ईएसवीएचडी) में 2017-18 और 2020-21 में इसी तरह की विसंगतियों को चिन्हित किया। 30वीं स्थायी समिति की रिपोर्ट बताती है कि ईएसवीएचडी में पर्याप्त बजट उपलब्ध होने के बावजूद इन दो वर्षों में कोई नया पशु चिकित्सालय स्थापित नहीं किया गया जिससे आपदा के समय पशु स्वास्थ्य के लिये मौजूदा बुनियादी ढांचा भी नाकाफी साबित हुआ।
मंत्रालय ने दावा किया कि स्थायी समिति को संतोषजनक जवाब भेज दिया गया है लेकिन समिति ने मंत्रालय के जवाब को "आधी-अधूरी कोशिश" बताते हुए खारिज कर दिया था।
बजट में कटौती और इसके कम उपयोग का दोष राज्यों पर मढ़ते हुए मंत्रालय ने द कलेक्टिव को बताया की “आवंटन राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा उनके कार्यक्रमों के तहत प्रस्तावित योजनाओं के कार्यान्वयन पर निर्भर करता है” हालांकि यही बात मंत्रालय ने पहले स्थाई समिति को भी बताई थी।
पक्षपातपूर्ण प्रतिक्रिया
देश के पशुधन स्वास्थ्य के प्रति केंद्र सरकार की चली आ रही उपेक्षा को तीन बीमारियों पर सरकार की अलग-अलग प्रतिक्रियाओं ने उजागर किया। सितंबर 2019 में ओडिशा में गायों में लंपी स्किन डिजीज (एलएसडी) का पता चला। यह एक वायरल संक्रमण है जिसमें मृत्यु दर अपेक्षाकृत कम होती है। इस दौरान देश में सीएसएफ का प्रकोप जारी था और 2020-21 में पूर्वोत्तर में इसके भीषण फैलाव की ख़बरें आई थीं। वहीं इसी बीच सूअरों को होने वाली एक दूसरी बीमारी एएसएफ ने अप्रैल 2020 तक अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी।
हाल ही में इन बीमारियों से हुई मौतों से पता चलता है कि संकट अभी भी बरकरार है और तत्काल कदम उठाने की जरूरत है। मिजोरम और नासिक से एएसएफ के कारण सूअरों की मौत की सूचना मिली है, लेकिन यूपी में हुई मौतों का कारण स्पष्ट नहीं है। इस रिपोर्टर ने यूपी के सूअर पालकों द्वारा बताई गई कम से कम 1,700 मौतों को रिकॉर्ड किया। उनके द्वारा बताय गए बीमारी के लक्षण एएसएफ और सीएसएफ दोनों के अनुरूप थे, लेकिन जांच के अभाव में वास्तविक कारण का पता नहीं चल पाया है।
द कलेक्टिव की जांच में, खासकर सीएसएफ से होने वाली मौतों में, ज़बरदस्त भेदभाव का पता चला। 100% मृत्यु दर का खतरा होने के बावजूद सीएसएफ के मामले सामने आने के बाद वित्तीय वर्ष 2020-21 में सूअर पालकों को कोई सरकारी सहायता नहीं दी गई। इसी दौरान सीएसएफ-सीपी के लिए फंडिंग नहीं होने के कारण देश में एक भी सीएसएफ का टीका नहीं लगाया गया।
दस्तावेज़ों से पता चलता है कि मंत्रालय वैक्सीन उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए मौजूदा वैक्सीन उत्पादन की तकनीक को, खासकर पूर्वोत्तर के क्षेत्र में जो सीएसएफ से सबसे ज्यादा प्रभावित थे, कई संस्थानों को त्वरित रूप से प्रदान करने में विफल रहा।
इसके विपरीत केंद्र सरकार ने मुख्य रूप से गायों को संक्रमित करने वाली एलएसडी पर त्वरित प्रतिक्रिया दी। एलएसडी के समय पर परीक्षण, टीकाकरण और पुन: टीकाकरण को अभियान के स्तर पर लागू किया गया। यहां तक की इस बीमारी के अधिक प्रभावी नियंत्रण के लिए विभिन्न संबंधित व्यक्तियों से परामर्श करते हुए बचे हुए बजट को भी रणनीतिक रूप से पुनः निर्देशित किया गया।
इसके परिणामस्वरूप चार वर्षों के भीतर दस राज्यों में 100% टीकाकरण के कारण एलएसडी पर काफी हद तक नियंत्रण पा लिया गया है। तत्काल नियंत्रण से परे सरकार ने भविष्य में होने वाले एलएसडी के किसी भी प्रकार के प्रकोप टालने के लिए भी प्रयास किए है। 2024 की शुरुआत से अब तक गायों को लगभग 3.5 करोड़ एलएसडी के टीके दिए गए है। वही इस बीच एएसएफ और सीएसएफ के कारण सूअरों की मौतें लगातार जारी हैं।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ के प्रोफेसर विकास बाजपेयी के अनुसार “सूअरों की बीमारी और मवेशियों को प्रभावित करने वाली लंपी डिजीज एक साथ फैली थी। चूंकि भारतीय पशुधन में सबसे बड़ा हिस्सा मवेशियों का है इसलिए यह स्वाभाविक था कि सरकार ने लंपी पर बहुत ध्यान दिया। लेकिन इस दौरान सूअर पालकों की समस्या और बढ़ गई क्योंकि सूअर पालन का काम अक्सर हाशिए पर रहने वाली जातियों के लोग करते हैं"
केंद्र सरकार एलएसडी से संबंधित सभी मामलों को एलएच एंड डीसी की पशु रोग नियंत्रण के लिए राज्यों को सहायता (एएससीएडी) के अंतर्गत देख रही है-- एलएसडी का टीकाकरण एएससीएडी के मूल में रहा है। 2019 में एलएसडी की पहली लहर के दौरान राज्यों को मिलने वाली सहायता अचानक छह साल के उच्चतम स्तर, 93.61 करोड़ रुपए तक बढ़ा दी गई -- जो पिछले वर्ष से 321% ज्यादा थी। और इसमें से 10 करोड़ रुपए ओडिशा को तुरंत भेज दिए गए जहां सबसे पहले एलएसडी बीमारी की सूचना मिली थी।
एलएसडी के फैलाव पर 66वीं स्थायी समिति की रिपोर्ट में मंत्रालय ने स्वीकार किया कि एलएसडी से निपटने में उसे पैसे की कोई कमी नहीं हुई। लेकिन जब पूर्वोत्तर के राज्यों को 2020-21 में गंभीर सीएसएफ प्रकोप का सामना करना पड़ा तो सरकार ने सीएसएफ-सीपी का बजट घटाकर शून्य कर दिया।
हालांकि मंत्रालय ने अन्य बीमारियों की तुलना में एलएसडी के लिए बजट आवंटन के मामले में किसी भी तरह के पक्षपात से इनकार किया है और कहा है कि बजट में बढ़ोतरी कई अन्य घटकों के कारण हुई है।
यह वित्तीय भेदभाव सरकार की प्राथमिकताओं को रेखांकित करता है। ऐसा लगता है कि गाय पालकों के जीवन और वित्तीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एलएसडी की रोकथाम पर अतिरिक्त ध्यान दिया गया, जबकि दलित और आदिवासी सूअर पालकों की जरूरतों को नज़रअंदाज़ किया गया जो अब भी इस संकट का खामियाजा भुगत रहे हैं।
सीएसएफ के मामलों का टीकाकरण से रोकथाम करने पर जोर दिया जाता है लेकिन एएसएफ से संबंधित मौत के मामले में सूअर पालक मुआवजे की मांग कर सकते हैं। मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में उत्तर प्रदेश में सूअर पालकों को वर्ष 2022-23 में एएसएफ से संबंधित मौतों के लिए कुल 30 लाख रुपए का मुआवजा दिया गया था।
यूपी के गौतम बौद्ध नगर में अगड़ी जाति के किसान सतीश गोयल ने मुनाफे की आशा में सामाजिक मानदंडों के खिलाफ जाकर 2016 में अपनी पैतृक भूमि पर एक पिग फार्म शुरू किया था। 2022 के अंत तक उनके सभी 1,500 सूअरों की मौत हो गई, जिनकी कीमत लगभग 3.5 करोड़ रुपए थी। गोयल ने दावा किया कि बीमारी के सही परीक्षण के लिए उनके फार्म से कोई सैंपल नहीं लिया गया।
गोयल ने कहा की “मुझे नहीं पता कि यह सीएसएफ का प्रकोप था या एएसएफ का लेकिन मेरे सभी सूअरों को तेज बुखार था, उनकी त्वचा लाल थी जो बाद में हल्के नीले रंग में बदल गई और अंततः एक-एक करके सभी सूअरों की मौत हो गई”।
मुआवज़ा न मिलने से स्थिति और ख़राब हो गई है। उच्च जाति के हिंदू और गोयल के सहयोगी पुष्पेंद्र तोमर ने बताया कि कैसे हताश किसान अक्सर अपने उन सूअरों को बेच देते हैं जिनमें बीमारी के लक्षण होते हैं।
तोमर कहते है की "सूअरों की मौत की भरपाई के लिए कोई सरकारी सुविधा न होने से सूअर पालक अक्सर अपने बीमार सूअर बेच देते हैं। हालांकि उससे वे कुछ पैसा कमा लेते हैं लेकिन संक्रामक सूअर नए क्षेत्रों में चले जाते हैं और संभावित रूप से दूसरे सूअरों को संक्रमित कर देते हैं"
[आलोक राजपूत टीआरसी इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग फ़ेलोशिप के विशेष प्राप्तकर्ता हैं। वह एक स्वतंत्र पत्रकार और समाजशास्त्र विषय के क्षेत्र में शोधार्ती हैं।]