नई दिल्ली: साल 2014 में प्रधानमंत्री बनने से पहले, नरेंद्र मोदी ने लोगों से कई ठोस वादे किए थे। उनमें से एक वादा था कि किसानों को उत्पादन लागत का आधे से अधिक मुनाफे के रूप में मिलेगा। तब यह सुनने में अच्छा लग रहा था।

फिर 2016 में इससे आगे जाकर उन्होंने छह वर्षों में किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया। जल्द ही, ‘किसानों की आय दोगुनी करने’ की बात बार-बार दोहराई जाने लगी।

ऐसा करने के लिए, उनकी सरकार ने कई योजनाएं शुरू कीं, और कुछ मौजूदा योजनाओं को नया रूप दिया।

इन्हीं योजनाओं में से एक थी पीएम-आशा, यानि प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान, जिसका उद्देश्य था देश भर में दलहन और तिलहन उगाने वाले लाखों किसानों की आय का संरक्षण करना।

सरकार ने 2019 के लोकसभा चुनाव से सात महीने पहले सितंबर 2018 में इस योजना की घोषणा की और 15,053 करोड़ रुपए आवंटित करने का दावा किया। एक प्रेस विज्ञप्ति में सरकार ने कहा कि यह योजना “हमारे ‘अन्नदाताओं’ के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता और समर्पण का प्रतिबिंब है”।

प्रधानमंत्री मोदी ने हरियाणा में इस योजना के बारे में बोलते हुए कहा था कि “किसान दशकों से बार-बार इसकी (एमएसपी पर खरीद) मांग कर रहे हैं। हमने अब उनकी इच्छा पूरी कर दी है”।

लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि यह योजना कुछ वैसी ही है जैसे किसी लोकप्रिय पुराने गीत का रीमिक्स करके उसे फिर से जनता के सामने रखा गया हो।

मोदी सरकार ने यूपीए सरकार की एक दशकों पुरानी योजना को लिया, जिसके तहत केंद्रीय एजेंसियां ​​​​किसानों से सीधे हजारों करोड़ रुपए के तिलहन और दालें खरीद रही थीं, और इसमें दो नए प्रावधान जोड़ दिए: पहला, यदि तिलहन किसान अपनी उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर बाजार में बेचते हैं, तो उन्हें नकद मुआवजा दिया जाएगा; और दूसरा, निजी खिलाड़ियों को किसानों से एमएसपी पर खरीदारी करने के लिए पायलट अभियान चलाए जाएंगे।

इस रीमिक्स योजना को किसानों की आय दोगुनी करने की एक नई रणनीति के रूप में पीएम-आशा ब्रांड के नाम से प्रस्तुत किया गया था।

लेकिन द रिपोर्टर्स कलेक्टिव द्वारा देखे गए आंकड़ों से पता चलता है कि योजना के नए प्रावधानों पर वास्तविक खर्च केवल 2019 चुनाव के आस-पास के महीनों और देश में चल रहे 2024 के लोकसभा चुनावों के दौरान देखा गया। एक ऐसे देश में जिसकी लगभग 55% आबादी कृषि पर निर्भर है, इन दो आम चुनावों के बीच के तीन वर्षों में सरकार ने इस योजना पर एक भी रुपया खर्च नहीं किया।

इस प्रकार, योजना के नए प्रावधानों के लिए पर्याप्त फंडिंग नहीं की गई और इनके लिए पैसा भी डायरेक्ट प्रोक्योरमेंट स्कीम (यानि किसानों से सीधे खरीद) से ही आया। इन प्रावधानों के लिए किए गए अपर्याप्त आवंटनों को संसद में पीएम-आशा के व्यापक बजट खर्च के पीछे छिपा दिया गया।

दूसरे शब्दों में कहें तो पीएम-आशा योजना किसानों को लुभाने के लिए केवल एक चुनावी जुमला साबित हुई और इससे किसानों को एक सतत, व्यवहार्य और स्थिर समर्थन नहीं मिल पाया, जबकि इसके अंतर्गत खरीदी जाने वाली फसलों के बाजार मूल्य गिर गईं।

दस साल बाद, एक बार फिर मोदी चुनाव मैदान में हैं, लेकिन इस बार वह और उनकी पार्टी किसानों की आय दोगुनी करने के वादे का ढिंढोरा नहीं पीट रहे हैं और इसे 2024 के अभियान से हटा दिया है।

पीएम-आशा से नहीं कोई उम्मीद

योजना में मुआवज़े और निजी खरीदारों से जुड़े नए प्रावधान लाखों ऐसे तिलहन किसानों की मदद कर सकते थे जो अपनी फसल खुले बाज़ार में बेचते हैं, जहां कीमतें सालों से कम हैं।

योजना के लिए 15,000 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया था, जबकि इसके शुरुआती छह महीनों में सरकार ने तिलहन किसानों को मुआवज़ा देने में 4,721 करोड़ रुपए खर्च किए। इनमें से 70% सरकार ने अप्रैल 2019 में लोक सभा चुनाव शुरू होने के दो महीने पहले खर्च किए।

यदि योजना के इस भाग को हर साल समान रूप से पर्याप्त फंडिंग की जाती तो इन सभी किसानों को बहुत फायदा मिल सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

अगले वित्तीय वर्ष (अप्रैल 2019-मार्च 2020) के लिए मोदी सरकार ने चुनाव खत्म होने के बाद इस योजना पर 1,500 करोड़ रुपए खर्च करने का वादा किया। मई 2019 में मोदी ने दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली।

लेकिन फिर इस योजना और इसके लाभार्थियों की उपेक्षा की गई। सरकार ने 1,500 करोड़ रुपए खर्च करने के वादे के मुकाबले तिलहन किसानों को समर्थन देने की योजना पर इस राशि का केवल 20.8% (313 करोड़ रुपए) ही खर्च किया।

पिछले वर्ष के मुकाबले योजना पर किए गए व्यय में नाटकीय रूप से 93% की भारी कटौती की गई।

लेकिन स्थिति इस से भी खराब तब हुई जब सरकार ने 2020-21 और 2022-23 के बीच इस योजना के तहत किसानों की मदद करने के लिए एक भी पैसा नहीं खर्च किया।

वित्तीय वर्ष 2023-2024 के लिए सरकार ने पीएम-आशा के नए घटकों के लिए शुरुआत में केवल एक लाख रुपए का बजट रखा था, लेकिन फिर उसे याद आया कि एक बार फिर चुनाव आने वाले हैं।

सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि योजना पर सरकार का अनियोजित खर्च एक बार फिर बढ़ गया। शुरू में बजट में आवंटित 1 लाख रुपए के मुकाबले, सरकार ने अनुमान लगाया कि उसने चुनावों से पहले योजना पर 2,200 करोड़ रुपए खर्च किए।

आंकड़ों के पीछे छिपा सच

योजना के बजटीय आवंटन में इस तरह के उतार-चढ़ाव पर सरकार की दलील थी कि यह ‘मांग-आधारित’ है। जब तिलहन किसानों को संकट का सामना करना पड़ता है और वे अपनी उपज न्यूनतम कीमतों से कम पर बेचते हैं, तो वे राज्य सरकारों से संपर्क करते हैं। फिर राज्य केंद्र सरकार से योजना के तहत उनकी सहायता के लिए कहते हैं।

लेकिन, भाजपा सांसद पीसी गद्दीगौदर की अध्यक्षता वाली कृषि संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने सरकार के झूठ को उजागर कर दिया।

जब समिति ने कृषि मंत्रालय से पूछा कि बड़े अनुमानित व्यय के बावजूद पैसे का कम उपयोग क्यों किया गया, तो मंत्रालय के अधिकारी ने योजना की मांग में कमी के लिए राज्यों को दोषी ठहराया। समिति ने जवाब में कहा कि यदि योजना का लाभ लेने वाला कोई नहीं था तो यह सरकार के “खराब नियोजन” को दर्शाता है, और कहा कि इस योजना का केंद्र सरकार द्वारा “कार्यान्वयन पूरी तरह गैर-संतोषजनक” था।

आंकड़े भी इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि केंद्र सरकार ने किसानों की उतनी मदद नहीं की जितनी उनकी जरूरत थी। अक्टूबर 2018 और जनवरी 2023 के बीच, कुछ महीनों को छोड़कर, तिलहन और दलहन की घरेलू बाजार कीमतें लगातार एमएसपी से नीचे रहीं, जैसा कि कृषि लागत और मूल्य आयोग द्वारा प्रकाशित खरीफ फसलों के लिए  2023-24 मूल्य नीति रिपोर्ट से पता चलता है। यह आयोग केंद्र सरकार के कृषि और किसान कल्याण विभाग के तहत कार्य करता है।

अक्सर ऐसी संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्टों और विचार-विमर्श की ओर जनता का ध्यान उस तरह आकर्षित नहीं होता जैसा संसदीय बहसों और प्रश्नों की ओर होता है।

इसलिए, जहां बंद कमरे में स्थायी समिति की चर्चा में सरकार ने पीएम-आशा योजना की विफलता को स्वीकार किया, वहीं संसद में इसने बनाए हुए आंकड़ों के आधार पर योजना को सफल घोषित किया।

स्थायी समिति की रिपोर्ट पेश होने के ग्यारह महीने बाद, दो सांसदों -- गोड्डेती माधवी और दुष्यंत सिंह -- ने पीएम-आशा के प्रदर्शन और योजना पर खर्च के बारे में सवाल पूछे।

उन्होंने पूछा, “प्राइस डेफिशियेंसी पेमेंट (मुआवजा) का प्रावधान केवल एक राज्य में ही क्यों काम कर रहा है और क्या सरकार इस योजना का स्वरुप बदलने की सोच रही है?”

सरकार ने इन सवालों से बचने के लिए पुरानी डायरेक्ट प्रोक्योरमेंट स्कीम के खर्च को नए घटकों पर हुए खर्च के साथ जोड़ दिया और आंकड़ों को इस तरह प्रस्तुत किया कि लगा जैसे सरकार उनपर हजारों करोड़ रुपए खर्च कर रही है, जबकि सरकार ने योजना के उन हिस्सों पर कुछ भी खर्च नहीं किया था जिनके बारे में सांसदों ने सवाल पूछे थे। जबकि बजट दस्तावेज़ स्पष्ट रूप से पुरानी डायरेक्ट प्रोक्योरमेंट स्कीम से अलग पीएम-आशा के घटकों पर व्यय बताते हैं। इन आंकड़ों को आपस में मिलाना कठिन है।

2024 के चुनावों में एक बार फिर पीएम-आशा के मुआवज़ा प्रदान करने के हिस्से को राजनैतिक फायदे का जरिया बनाया जा रहा है। बजट आंकड़ों से पता चलता है कि सरकार ने शुरुआत में इस साल पीएम-आशा के माध्यम से किसानों को सहायता प्रदान करने की कोई योजना नहीं बनाई थी। लेकिन फरवरी 2023 में बजट पेश करने के बाद योजनाएं बदल गईं, और चुनावों के आगमन के साथ पीएम-आशा को फिर से बढ़ावा मिल रहा है।

लेकिन, इसी दौरान डायरेक्ट प्रोक्योरमेंट पर खर्च पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में 97.3% कम हो गया, जिससे पता चलता है कि 2024 के आम चुनावों से पहले केंद्र सरकार सीधे खरीद के मुकाबले, किसानों की क्षतिपूर्ति करने के लिए राज्य सरकारों को पैसा दे रही है।