Nainital, Dehradun and New Delhi: क्या सरकारें पुलिस व्यवस्था, टैक्स लेना और पर्यावरण संरक्षण जैसे राज्य के कामकाज निजी कंपनियों को दे सकती हैं? और दावा कर सकती हैं कि वे आपदाओं को रोकने के लिए ऐसा कर रही हैं?

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने पता लगाया है कि उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने ऐसा ही किया है।

उत्तराखंड राज्य सरकार ने रिवरबेड माइनिंग (नदी के तल में खनन) करने वालों से रॉयल्टी और दूसरे टैक्स वसूलने और अवैध खनन पर लगाम लगाने की शक्तियां निजी हाथों में सौंप दी हैं।

राज्य ने इससे एक कदम आगे जाकर यह नियम बनाया है कि जो निजी कंपनी रिवरबेड माइनिंग से टैक्स वसूल करने का अधिकार प्राप्त करती है, उसे नदियों में खनन करने के लिए दूसरों की तुलना में प्राथमिकता दी जाएगी। दूसरे शब्दों में, एक माइनिंग कंपनी अब दूसरे माइनरों से टैक्स भी ले सकती है और राज्य की नदियों से बोल्डर, रेत और बजरी के अवैध खनन को रोकने की जिम्मेदार भी हो सकती है। कई विशेषज्ञ इसे हितों के टकराव का एक उत्कृष्ट उदाहरण मानते हैं। 

द रिपोर्टर्स कलेक्टिव की इस जांच से यह भी पता चलता है कि उत्तराखंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का लगातार उल्लंघन किया है, जिसके तहत राज्य को निर्देश है कि वह रिवरबेड माइनिंग से प्राप्त धन को जंगलों के संरक्षण में लगाए। यह एक रास्ता है जिसके द्वारा राज्य नदी खनन जैसी इकोलॉजिकल रूप से हानिकारक गतिविधियों के कारण जंगलों को होने वाले नुकसान की भरपाई कर सकता है। लेकिन दस्तावेजों में ऐसे सबूत मिले हैं जिनसे पता चलता है कि राज्य ऐसा नहीं कर रहा है।

जांच के दौरान जो रिकॉर्ड सामने आए वह बताते हैं कि केंद्र सरकार उत्तराखंड द्वारा नियमों के उल्लंघन से अच्छी तरह वाकिफ है, लेकिन उसने अपनी कानूनी शक्तियों का इस्तेमाल करके राज्य सरकार को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया है।

जांच में इस बात के सबूत मिलते हैं कि कैसे राज्य ने माइनिंग कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए पर्यावरणीय नियमों और विनियमों के साथ छेड़-छाड़ की है। सरकार द्वारा पारित कई आदेश और नियम संभावित रूप से अवैध खनन को कानूनी संरक्षण दे सकते हैं। मजे की बात यह है कि सरकार दावा करती है कि पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील हिमालय की पहाड़ियों में आपदाओं को रोकने के साथ-साथ राजस्व और रोजगार पैदा करने के लिए इस तरह की रिवर माइनिंग जरूरी है। सरकार का यह तर्क एक तरह से ग्रीनवॉशिंग है, जिसका मतलब है ऐसे कदम को पर्यावरण के लिए अनुकूल बताना जो वास्तव में पर्यावरण के अनुकूल नहीं है। इस रिपोर्ट में कुछ सबूत पहली बार सामने आ रहे हैं, और अन्य साक्ष्य पहले ही द रिपोर्टर्स कलेक्टिव और दूसरों के माध्यम से सामने आ चुके हैं।

द कलेक्टिव ने राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं पर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री, सरकार के खनन और वन विभागों को विस्तृत प्रश्नावली भेजी लेकिन अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है। उत्तराखंड में रिवर माइनिंग नियमों के उल्लंघन और हितों के टकराव पर हमने केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से भी स्पष्टीकरण मांगा है। जवाब मिलने पर इस रिपोर्ट को संशोधित कर दिया जाएगा।

हमने जब सरकारी विभागों को सवाल भेजे, उसके कुछ दिनों बाद अमर उजाला में एक रिपोर्ट छपी, जिसमें राज्य सरकार की खनन नीति की पारदर्शिता और रिकॉर्ड राजस्व संग्रह की प्रशंसा की गई।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन

भाजपा एक काडर-आधारित पार्टी है जो अपने अनुशासन पर गर्व करती है। इस साल जून में जब उत्तराखंड की मौसमी नदियां सूख गईं और तलछट से भरा तल दिखने लगा, जिसके लिए खनन ठेकेदारों में प्रतिस्पर्धा होती है, तो राज्य के भाजपा नेतृत्व के बीच भी मतभेद हो गए।

राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और माजूदा भाजपा सांसद त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने अपने लोकसभा क्षेत्र हरिद्वार में बड़े पैमाने पर अवैध खनन के लिए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व वाली वर्तमान राज्य सरकार की आलोचना की। उन्होंने मीडिया से कहा, "इस (अवैध खनन) से राज्य के खजाने को राजस्व की भारी हानि तो होती ही है, लेकिन पर्यावरण को और भी अधिक नुकसान होता है।"

लेकिन जहां उन्होंने राज्य में भाजपा सरकार की आलोचना की, वहीं यह भी कहा कि "हमारे प्रधानमंत्री पर्यावरण के प्रति बहुत जागरूक हैं और वह पर्यावरण संरक्षण के लिए बहुत कुछ करना चाहते हैं।"

नेताओं के साथ यह बता पाना अक्सर मुश्किल होता है कि वे किसी मुद्दे का इस्तेमाल पार्टी के भीतर प्रतिद्वंद्वियों पर बढ़त बनाने के लिए कर रहे हैं, या जनता की भलाई के लिए या फिर दोनों के लिए। द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने पड़ताल की कि क्या उनके दावे सबूतों पर आधारित थे। 

हमें जो मिला वह इस बात का सबूत था कि कैसे राज्य सरकार ने एक विस्तृत नियामक व्यवस्था बनाई है जो इकोलॉजी और पर्यावरण संरक्षण के बजाय अनियंत्रित खनन को बढ़ावा देती है।

शीश महल खनन गेट, हलद्वानी, उत्तराखंड में गौला नदी के खनन क्षेत्र की सीमा। [फोटो: तपस्या]

इस रिपोर्टर ने उत्तराखंड की यात्रा की और बेरोकटोक खनन की मार झेल रही नदियों के स्वास्थ्य के बारे में खनन और संबंधित गतिविधियों में लगे स्थानीय व्यापारियों, सिविल सोसाइटी के सदस्यों और पर्यावरणविदों से बात की। ऐसी ही एक नदी है गौला, जो उत्तराखंड के नैनीताल जिले के शहर हलद्वानी से होकर बहती है।

हलद्वानी के मैदानी इलाकों में पहुंचने पर गौला नदी धीमी और चौड़ी हो जाती है, माइनर्स के लिए नदी तल को खोदने का यह आदर्श स्थान है।

"खनन के कारण नदी बर्बाद हो गई है। गौला पुल का एक खंभा ढह गया, हल्द्वानी रेलवे स्टेशन के पास रेलवे ट्रैक भी बाढ़ में क्षतिग्रस्त हो गया क्योंकि खनन के कारण इसके नीचे की जमीन हट गई है," हल्द्वानी के एक स्थानीय ऑटो-चालक महेश दत्त ने कहा।

राज्य की नदियों के प्रति सरकार की उपेक्षा की पुष्टि आधिकारिक दस्तावेज़ों से भी होती है।

औद्योगिक परियोजनाओं, खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास के कारण इकोलॉजी को होने वाली हानि और वनों की कटाई की क्षतिपूर्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 2008 में एक व्यवस्था बनाई थी। इसे नेट प्रेजेंट वैल्यू या एनपीवी कहा गया था। यह एक तरीके का मौद्रिक मुआवजा था जो डेवलपर्स को उनकी परियोजनाओं द्वारा वनों को होने वाले नुकसान के लिए देना होता था।

एनपीवी को एक निवारक उपाय बताया जा रहा था। यदि किसी परियोजना से इकोलॉजी और वनों को नुकसान पहुंचने वाला है, तो इसके परिणामस्वरूप डेवलपर को एनपीवी देना होगा, जिससे परियोजना की लागत बढ़ेगी और ऐसा करने की बजाय डेवलपर एक वैकल्पिक साइट ढूंढेगा जहां काम करने से इकोलॉजी को नुकसान कम हो।

लेकिन वास्तव में एनपीवी की दरें इतनी कम निर्धारित की गईं कि यह निरोधक उपाय साबित नहीं हुआ। इसके बजाय, यह एक ऐसा उपाय बन गया जिसके द्वारा सरकारें उतनी ही या उससे भी ज्यादा परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंजूरी देकर भी अपनी प्रतिष्ठा बरकरार रख सकती थीं।

अदालत के आदेश के तहत रिवर-माइनिंग परियोजनाओं को एनपीवी से छूट मिली थी। यदि खनन राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के बाहर हो रहा है, तो माइनरों से एनपीवी लेने की जरूरत नहीं थी। कोर्ट ने तय किया कि इसके बजाय खनन की गई बजरी, रेत और बोल्डर की बिक्री से होने वाली आय को सरकार वन संरक्षण के काम में लगाए।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार एनपीवी में छूट के लिए मानदंड। [स्रोतः एमओईएफसीसी]

लेकिन राज्य सरकार के जो रिकॉर्ड द कलेक्टिव को मिले उनसे पता चलता है कि उत्तराखंड में वर्षों से सुप्रीम कोर्ट के इन आदेशों का उल्लंघन करते हुए बड़े पैमाने पर रिवर माइनिंग का काम चल रहा है।

राज्य सरकार का उत्तराखंड वन विकास निगम (यूकेएफडीसी) सीमांकित वन क्षेत्रों के भीतर नदियों में खनन करता है। निजी कंपनियां खनन सामग्री खरीदते हैं और राज्य सरकार को रॉयल्टी और अन्य शुल्क देते हैं, जो उनके द्वारा ली जाने वाली रेत और बजरी की मात्रा के आधार पर तय होता है। फिर वे इसे निर्माण उद्योग को बेचकर पैसा कमाते हैं। यह रॉयल्टी ही "बिक्री आय" है जो राज्य अपनी नदियों के खनन से अर्जित करता है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के विपरीत, राज्य सरकार के निर्देशानुसार, वन निगम और राज्य वन विभाग को रॉयल्टी और अन्य शुल्कों का केवल एक छोटा सा हिस्सा मिलता है, पूरी राशि नहीं। हमने सरकारी दस्तावेजों की समीक्षा की, जो बताते हैं कि नैनीताल जिले की तीन नदियों -- गौला, कोसी और दाबका -- के खनिजों की बिक्री से वन विभाग और निगम को केवल एक हिस्सा मिलता है। गौला नदी के खनन से वन विभाग और निगम को राज्य की कुल कमाई का केवल 55.4% (प्रत्येक टन खुदाई के लिए 293.5 रुपए में से 162.6 रुपए) और कोसी और दाबका नदियों के खनन से दोनों को 58.8% (प्रति टन 283.8 रुपए में से 166.8 रुपए) मिले। 

गौला नदी से खनन किए जाने वाले खनिजों पर शुल्क कम करने का उत्तराखंड सरकार का आदेश।

रिकॉर्ड बताते हैं कि जनवरी 2023 के महीने में खनिजों की बिक्री से अर्जित राजस्व में वन निगम और वन विभाग की हिस्सेदारी और कम हो गई। गौला नदी से वन विभाग और निगम को केवल 49.6% कमाई हुई, और कोसी और दाबका नदी से उन्हें 50.75% कमाई हुई।

वन विभाग और निगम को मिलने वाले इस हिस्से का भी एक भाग, खनन के लिए नदी तल की खुदाई में खर्च किया जाता है, न कि जंगलों के संरक्षण के लिए, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार जरूरी है। 

केंद्र की जानकारी में हो रहा अवैध खनन

दस्तावेजों में मौजूद सबूतों से पता चलता है कि केंद्र सरकार इस बात से भली-भांति परिचित है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन करके राज्य अवैध रूप से रिवर माइनिंग व्यवसाय चला रहा है।

भारत के वन संरक्षण कानून के तहत, जंगलों में कोई भी हानिकारक गतिविधि शुरू करने से पहले केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति जरूरी होती है। जहां नदियां वन भूमि से होकर बहती हैं, वहां रिवरबेड माइनिंग के लिए भी यह मंजूरी लेनी होती है। ऐसी अनुमति वनों की सुरक्षा और कम नुकसान करने के नियमों और शर्तों के साथ मिलती है।

यूकेएफडीसी ने पहली बार 2013 की शुरुआत में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय से नैनीताल जिले की नदियों में खनन के लिए दस साल की मंजूरी हासिल की थी।

जैसा कि रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने पहले रिपोर्ट किया था, इस मंजूरी की अवधि समाप्त होने के बाद फरवरी 2023 में राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने दिल्ली आने और खनन अनुमतियों को बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार की पैरवी करने का दिखावा किया। 

केंद्र सरकार ने खुशी-खुशी इस अवधि को पांच साल और बढ़ा दिया। धामी ने अपने सार्वजनिक फेसबुक पेज पर केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री के साथ एक तस्वीर पोस्ट की और कहा, "पूर्व में किए गए अनुरोध को स्वीकृति प्रदान करते हुए केंद्र सरकार द्वारा प्रदेश की चार नदियों -- गौला, शारदा, दाबका, एवं कोसी की वन स्वीकृतियां आगामी पांच वर्षों तक नवीनीकृत कर दी गई हैं।"

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने रिवर माइनिंग की मंजूरी बढ़ाने के लिए केंद्र से पैरवी की। [स्रोत: फेसबुक]

अवधि बढ़ाने से पहले यह सुनिश्चित नहीं किया गया कि इसके पहले पर्यावरण को होनेवाले नुकसान को रोकने के लिए जो शर्तें लगाई गईं थीं, उनका पालन किया गया था या नहीं। जबकि नदियों में खनन हाथियों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण माने जाने वाले शिवालिक एलीफैंट रिजर्व के अंदर किया जा रहा था, इसके बावजूद मंजूरी की अवधि बढ़ाई गई।

पिछले प्रदर्शन को देखे बिना, नई स्वीकृतियों में और भी अधिक शर्तें जोड़ दी गईं। इनमें से एक शर्त सबसे अलग थी। केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने सिफारिश की कि "बिक्री से होने वाली आय का उपयोग वनों की सुरक्षा/संरक्षण के लिए किया जाना चाहिए"।

यह केंद्र सरकार द्वारा एक औपचारिक स्वीकृति थी कि वह भलीभांति जानती थी कि राज्य सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन कर रहा है। दरअसल, केंद्र सरकार को यह भी पता था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करने के लिए उत्तराखंड में कौन सा नियम लागू किया गया है।

केंद्र ने राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ-साथ अपने दिशानिर्देशों की भी याद दिलाई और कहा कि "आदेश की जांच करें... इसे तुरंत वापस लिया जाए और खनिजों की बिक्री की पूरी आय का उपयोग केवल वनों की सुरक्षा और संरक्षण के लिए किया जाए"।

केंद्र ने राज्य की नदियों में खनन के लिए वन स्वीकृति की अवधि बढ़ाते हुए एक अतिरिक्त शर्त लगाई। [स्रोतः एमओईएफसीसी]

केंद्र ने सरकारी भाषा में राज्य को भविष्य में ऐसा नहीं करने के लिए कहा, लेकिन यह ज़िक्र नहीं किया कि राज्य की भाजपा सरकार कैसे पिछले एक दशक से शीर्ष अदालत के आदेशों का उल्लंघन करते हुए काम कर रही है। 

मार्च 2023 में केंद्र की चेतावनी के बाद भी उत्तराखंड राज्य ने उक्त आदेश वापस नहीं लिए हैं। राज्य के अधिकारियों ने स्वीकार किया कि केंद्र सरकार के सुझाव के बावजूद, वन संरक्षण निधि का दुरुपयोग जारी है। सार्वजनिक रूप से इस बात का कोई सबूत उपलब्ध नहीं है कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के उल्लंघन के लिए राज्य और उसके अधिकारियों पर मुकदमा चलाने के लिए कोई सक्रिय कदम उठाया हो या राज्य से धन की वसूली करने और इसे पूर्वव्यापी रूप से वन संरक्षण के लिए देने के लिए कहा हो। 

जंगलों को नुकसान

रिवरबेड माइनिंग की देखरेख कर चुके राज्य के एक प्रशासनिक अधिकारी से हमने पूछा कि खनिजों की बिक्री से होने वाली आय को वन संरक्षण पर किस तरह खर्च किया जा सकता है? 

नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर उन्होंने बताया, "खनन से नदी की इकोलॉजी को नुकसान पहुंचता है, उसकी रक्षा पर पैसा लगाया जाना चाहिए। नैनीताल के जंगलों में हाथियों और बाघों के कॉरिडोर हैं जिन्हें सुरक्षा और फंड की जरूरत है। बिक्री से प्राप्त राशि का उपयोग जंगल की आग और मानव-वन्यजीव संघर्ष की रोकथाम और मुआवजे के लिए किया जा सकता था।"

इस साल गर्मियों में राज्य के जंगलों में लगातार आग की घटनाएं  हुई हैं। राज्य सरकार की रिपोर्ट के अनुसार, जून के अंत तक उत्तराखंड की भीषण आग में 11 लोगों की मौत हो गई थी।

इस साल 28 जून तक उत्तराखंड में रिज़र्व फारेस्ट इलाकों में आग लगने की 845 घटनाएं हुईं। इनमें से 95 तराई पूर्वी वन प्रभाग में हुईं, जहां गौला का खनन होता है, 45 रामनगर और तराई पश्चिमी प्रभाग में जहां दाबका और कोसी का खनन होता है। 

लेकिन खनन पर रॉयल्टी और दूसरे टैक्सों में हिस्से के अलावा और भी कुछ है जो उत्तराखंड के जंगलों तक नहीं पहुंच रहा है।

खननकर्ता वन मार्ग से बजरी, रेत और बोल्डर की ढुलाई के लिए 'ट्रांजिट फी' (पारगमन शुल्क) भी देते हैं, जो  वन विभाग की आय का हिस्सा है। भारतीय वन अधिनियम वनभूमि से प्राप्त की गई किसी भी चीज़ को 'वन-उपज' (फारेस्ट प्रोड्यूस) मानता है, और इस कानून के तहत यह शुल्क अनिवार्य है।

रिवरबेड माइनिंग करने वालों से इस शुल्क की वसूली में धोखाधड़ी और घोटाले भी हुए हैं। राष्ट्रीय लेखा परीक्षक को टेस्ट चेकिंग (पूर्ण ऑडिट नहीं) के बाद ऐसे कई मामले मिले जिनका उल्लेख 2019 की एक रिपोर्ट में किया गया है।

2021 की ऑडिट रिपोर्ट में पाया गया कि "(राज्य सरकार की) एजेंसियों ने ठेकेदारों को बिना ट्रांजिट पास के लगभग 37.17 लाख मीट्रिक टन खनन सामग्री का उपयोग करने दिया।" दूसरे शब्दों में कहें तो नदियों से लाखों टन बजरी, रेत और बोल्डर अवैध रूप से निकाले गए, जिससे पर्यावरण और राजकोष दोनों को घाटा हुआ। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि सरकार राज्य में रिवरबेड माइनिंग करने वालों से अन्य प्रकार की पेनल्टी वसूलने में भी विफल रही है, जो कम से कम 104.08 करोड़ रुपए होती है। 

पर्यावरण प्रशासन की आउटसोर्सिंग

आपको लगेगा कि शीर्ष सरकारी ऑडिटर द्वारा इस तरह की आलोचना और घोटाले के सबूत सामने आने के बाद अधिकारियों और खननकर्ताओं के खिलाफ जांच होगी। बजाय इसके, राज्य सरकार ने खननकर्ताओं से रॉयल्टी वसूलने और उन पर निगरानी रखने का काम निजी कंपनियों को सौंप दिया है। 

जून 2023 में अधिसूचित उत्तराखंड के खनन नियमों में कहा गया है कि रॉयल्टी एकत्र करने के लिए चुनी गई कंपनी को उपलब्ध क्षेत्रों में खनन के लिए प्राथमिकता दी जाएगी।

 उत्तराखंड के नियमों की धारा 69 (iv) कर टैक्स लेने वाली निजी कंपनियों को खनन पर प्राथमिकता का अधिकार देती है। [स्रोत: भूविज्ञान एवं खनन इकाई, उत्तराखंड की वेबसाइट]

वन क्षेत्रों के अंदर रिवरबेड माइनिंग करने वालों से रॉयल्टी लेने के लिए जरूरी है कि उन मार्गों पर चेक-पोस्ट लगाई जाएं जिनका उपयोग बोल्डर और बजरी से भरे ट्रकों को ले जाने के लिए किया जाता है। नियमानुसार यह कार्य अब डिफ़ॉल्ट रूप से निजी कंपनियों को सौंप दिया गया है, जिसके लिए वह बोली लगाते हैं।

हमने आधिकारिक पत्राचार की समीक्षा की, जिसमें कंपनी ने उन चेकपोस्टों को सूचीबद्ध किया है जिन्हें वह वन विभाग और राज्य के राजस्व विभाग के स्थान पर टैक्स लेने के लिए सड़कों के किनारे स्थापित करना चाहती है। कंपनी ने राज्य सरकार से इन चेकपोस्टों को स्थापित करने और चलाने की अनुमति मांगी। 

जिस कंपनी को रॉयल्टी संग्रह का काम सौंपा गया उसने अपने चेकपोस्ट स्थापित करने की अनुमति मांगी।

हमें कम से कम एक ऐसा उदाहरण मिला जहां रॉयल्टी संग्रह को हैदराबाद स्थित निजी कंपनी, पावर मेक प्रोजेक्ट्स लिमिटेड को आउटसोर्स किया गया है। कंपनी ने चार जिलों -- नैनीताल, हरिद्वार, उधम सिंह नगर और देहरादून -- में खनन की गई नदी सामग्री से पांच साल के लिए रॉयल्टी इकट्ठा करने के लिए ई-ऑक्शन प्रक्रिया में सफलतापूर्वक बोली लगाई। कंपनी राज्य को इसके बदले 303.52 करोड़ रुपए देगी। बाकी सारा पैसा उसके मुनाफे में जाएगा।

निजी कंपनियां अधिक से अधिक मुनाफ़े कमाने के लिए काम करती हैं, न कि अवैध खनन को रोकने करने या नदियों का संरक्षण करने के लिए।

"एक निजी कंपनी स्थानीय माइनरों और ट्रांसपोर्टरों से रॉयल्टी वसूल करेगी। क्या इससे अत्यधिक खनन नहीं होगा, क्योंकि निजी कंपनी सरकार को दी गई धनराशि वसूना चाहेगी और उसके ऊपर मुनाफा कमाना चाहेगी?'' गौला नदी के किनारे से खनन सामग्री उठाकर स्टोन क्रशरों तक पहुंचाने वाले एक स्थानीय ट्रांसपोर्टर ने नाम न बताने की शर्त पर कहा।

यह प्रावधान संभावित रूप से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित एनपीवी मानदंडों का उल्लंघन है: बोल्डर/गाद की बिक्री सहित यह कार्य विभागीय या सरकारी उपक्रम या आर्थिक विकास समिति या संयुक्त वन प्रबंधन समिति द्वारा किए जाते हैं।

“वन क्षेत्रों में खनन का नियंत्रण वन विभाग के पास होना चाहिए और खनन कार्य और बिक्री से होने वाली आय उसकी निगरानी में होनी चाहिए। लेकिन न केवल ऐसा नहीं हो रहा है, बल्कि राज्य ने निजी कंपनियों को अपना काम करने के लिए आमंत्रित किया है," उक्त अधिकारी ने बताया। उन्होंने कहा, "जंगलों में खनन के संबंध में ऐसे निर्णय वन विभाग को लेने होते हैं, खनन विभाग को नहीं।"

रिकॉर्ड के अनुसार, राज्य सरकार की ओर से रॉयल्टी इकट्ठा करने वाली कंपनी पावर मेक प्रोजेक्ट्स ने इस काम के लिए एक और निजी कंपनी के साथ समझौता किया। मार्च 2024 में कैलाश रिवरबेड मटेरियल्स एलएलपी नामक फर्म ने राज्य के चार जिलों में रिवरबेड खनिजों पर रॉयल्टी इकट्ठा करने के लिए राज्य सरकार के साथ पांच साल के समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस कंपनी को पावर मेक ने नेशनल एनर्जी ट्रेडिंग एंड सर्विसेज लिमिटेड के साथ लिमिटेड लायबिलिटी पार्टनरशिप के तहत स्थापित किया था। नेशनल एनर्जी ट्रेडिंग एंड सर्विसेज लिमिटेड को पहले लैंको पावर ट्रेडिंग के नाम से जाना जाता था, जिसका संबंध पूर्व सांसद लगड़ापति राजगोपाल से था। 

मार्च में राज्य सरकार ने एक निजी फर्म के साथ एक समझौता कर उसे रॉयल्टी संग्रह का काम सौंप दिया। 

“यदि खनन सामग्री पर रॉयल्टी नहीं दी जाती तो यह अवैध खनन माना जाता है जो एक दंडनीय अपराध है। इसकी निगरानी करना सरकार का काम है। इस काम को निजी हाथों में देना वैसा ही है जैसे एक पुलिस स्टेशन को किसी निजी कंपनी को आउटसोर्स करना," हल्द्वानी स्थित वकील दुष्यंत मैनाली ने कहा, जिन्होंने उत्तराखंड में अवैध रिवर माइनिंग पर बड़े पैमाने पर काम किया है। 

इन नियमों के कारण राज्य के छोटे व्यवसाय, जो रिवर माइनिंग सप्लाई चेन का हिस्सा थे, अब बाहरी कंपनियों के खिलाफ खड़े हो गए हैं, जो राज्य के प्राकृतिक संसाधनों के आकर्षक व्यापार पर कब्जा कर रहे हैं। 

"नियम अमीर स्टोन क्रशर और बड़े व्यवसायों के पक्ष में बनाए जा रहे हैं। हमारे जैसे छोटे खिलाड़ी उनके नीचे ही रहेंगे," उक्त स्थानीय ट्रांसपोर्टर ने कहा।

हमने अपनी जांच में पाया कि राज्य सरकार ने केवल अपने नियामक कार्यों का निजीकरण ही नहीं किया है, बल्कि हितों के टकराव को संस्थागत बना दिया है। नियमों के अनुरूप राज्य में रॉयल्टी इकट्ठा करने वाली निजी कंपनियों को नदियों के खनन के लिए अन्य कंपनियों की तुलना में प्राथमिकता दी जाएगी, यदि वे इसके लिए बोली लगाएं।

“सरकार ने कहा है कि रॉयल्टी संग्रह के लिए नियुक्त कंपनी को खनन पर भी प्राथमिकता का अधिकार होगा। इसलिए, खनन करने वाले राजस्व एकत्र करेंगे और अपनी ही गतिविधियों पर नज़र रखेंगे। यह स्पष्ट रूप से हितों का टकराव है," दुष्यंत मैनाली ने कहा।

उत्तराखंड में खननकर्ताओं के लिए धन की नदियां लगातार बह रही हैं।