नई दिल्ली: मध्य प्रदेश के सिंगरौली जंगलों में स्थित गोंडबहेरा उझेनी पूर्व कोयला ब्लॉक की नीलामी में, केंद्रीय कोयला मंत्रालय ने 17 अगस्त 2022 को अडानी समूह को सफल घोषित किया। 250 मिलियन टन कोयला भंडार वाले इस ब्लॉक की नीलामी असामान्य थी, क्योंकि इसके लिए केवल अडानी समूह ने बोली लगाई थी।
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने ऐसे दस्तावेज देखे जिनसे पता चलता है कि नीलामी विफल होने के बावजूद यह ब्लॉक अडानी समूह को मिल गया, क्योंकि सरकार ने चुपचाप कोयला ब्लॉक नीलामी के नियमों को बदल दिया था। जिसके बाद प्रतिस्पर्धा के अभाव में भी कंपनियों के लिए कोयला ब्लॉक हासिल करना आसान हो गया।
यह नियम पारदर्शिता के उन मुखर दावों के बिलकुल विपरीत है जो नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा किए जाते हैं। कोयला ब्लॉकों की नीलामी के इन नए कानूनों और नियमों को सरकार काफी प्रचार-प्रसार के साथ लेकर आई थी। सात साल बाद, नीलामी विफल होने पर स्वेच्छा से किए जाने वाले आवंटन समाप्त करके निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा लेकर आने के वादे ताक पर रख दिए जाते हैं। इन नियमों ने सुप्रीम कोर्ट के 2014 के उस ऐतिहासिक आदेश की भावना को भी कमजोर कर दिया है, जिसने कोयला ब्लॉकों के मनमाने आवंटन को रद्द कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने पिछली यूपीए सरकार द्वारा किए गए 204 ऐसे आवंटन रद्द कर दिए थे। मीडिया इसे ने 'कोलगेट घोटाले' का नाम दिया था।
रिकॉर्ड बताते हैं कि सरकार ने निर्णय लेने की जो शक्तियां खुद को सौंपी हैं, उनका लाभ सिर्फ अडानी समूह को ही नहीं मिल रहा है। सरकार ने कम से कम 12 मामलों में इन शक्तियों का सहारा लेकर नीलामी में प्रतिस्पर्धा नहीं रहने के बावजूद निजी कंपनियों को कोयला ब्लॉक आवंटित किए हैं। इनमें शामिल हैं वेदांता के स्वामित्व वाली कंपनियां, जेएसडब्ल्यू स्टील, बिड़ला कॉर्पोरेशन और दूसरी कंपनियां जो उतनी नामचीन नहीं हैं।
इस श्रृंखला के पहले भाग में द कलेक्टिव ने खुलासा किया था कि कैसे बिजली उद्योग लॉबी ने सरकार को मध्य प्रदेश के संवेदनशील वन क्षेत्रों में कोयला खनन की अनुमति देने के लिए प्रेरित किया था। लॉबी की नजर खास तौर पर दो ब्लॉकों पर थी। पर्यावरण मंत्रालय की सालों पुरानी सलाह को दरकिनार कर सरकार ने इन दो ब्लॉकों को नीलामी में शामिल किया। इनमें से एक के लिए एकमात्र बोली लॉबी के सदस्य अडानी समूह ने लगाई थी।
श्रृंखला के भाग दो में खुलासा किया गया है कि कैसे सरकार अपनी मर्जी से निजी कंपनियों को कोयला ब्लॉक आवंटित (डिस्क्रीशनरी अलॉटमेंट) करती है, जब नीलामी में केवल एक ही बोली प्राप्त होती है। कोयला खदानों की बिक्री में यह तेजी तब आई है जब देश को अतिरिक्त कोयला आपूर्ति की जरूरत नहीं है और अगले एक दशक के लिए देश की ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त कोयला ब्लॉक आवंटित किए जा चुके हैं।
अदाणी समूह के प्रवक्ता ने मेल पर द कलेक्टिव को बताया, "कोयला मंत्रालय द्वारा आयोजित वाणिज्यिक कोयला खनन नीलामी में भाग लेने के लिए भारत में पंजीकृत प्रत्येक कंपनी के लिए समान अवसर के साथ पूरी तरह से पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया है।" और कहा "प्रतिस्पर्धा को रोकने के लिए वित्तीय और तकनीकी योग्यता जैसी कोई बाधाएं नहीं हैं।"
“हम सरकार की नीलामी व्यवस्था और मौजूदा मानदंडों और विनियमों के भीतर सख्ती से काम करते हैं। सबसे तकनीकी और व्यावसायिक रूप से प्रतिस्पर्धी बोली लगाने वाले को खनिज ब्लॉक दिए जाते हैं, ” वेदांत एल्युमीनियम के प्रवक्ता ने कहा।
कोयला मंत्रालय को भेजे गए विस्तृत प्रश्नों का अनुस्मारक के बावजूद कोई जवाब नहीं मिला।
पहले जैसी स्थिति
जून 2020 में मोदी सरकार ने वाणिज्यिक कोयला खनन की जो व्यवस्था बनाई, उसके तहत सरकार अपनी मर्जी से कोयला ब्लॉक आवंटित कर सकती है। यह फैसले चार सरकारी विभागों के सचिवों वाली एक समिति करती है। चार सचिवों के इस समूह को सचिवों की अधिकार प्राप्त समिति कहा जाता है, और इसके पास यह तय करने का अधिकार है कि कौन से ब्लॉक एकमात्र बोली लगाने वाले (सिंगल बिडर) को दिए जाने चाहिए और कौन से नहीं। लेकिन समिति यह निर्णय कैसे लेती है, इसके लिए सार्वजनिक रूप से कोई मानदंड उपलब्ध नहीं हैं।
सिंगरौली का जो कोयला ब्लॉक अडानी समूह को मिला, उसे दो बार नीलामी में रखा गया था -- एक बार मार्च 2021 में और फिर सितंबर 2021 में। पहली बार ब्लॉक के लिए सिर्फ एक बोली प्राप्त हुई, जिसके कारण नीलामी रद्द कर दी गई। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रिकॉर्ड में इस सिंगल बिडर का नाम नहीं है। दूसरी बार एकमात्र बोली अडानी ने लगाई। सरकार ने फिर इसे अधिकार प्राप्त समिति के पास भेज दिया, जिसने तय किया कि ब्लॉक को अडानी समूह को उसी कीमत पर सौंपा जाए जितनी उसने बोली लगाई थी। इस प्रक्रिया में सार्वजनिक संपत्ति की नीलामी के सिद्धांतों कमजोर हुए, जो कहते हैं कि बड़ी संख्या में संभावित खरीदार जुटाएं और मिलीभगत को रोकें (यदि नीलामी में एक ही बोली प्राप्त हो तो सवाल उठते हैं कि कहीं बोलीदाताओं में मिलीभगत तो नहीं है, या बाजार में इस संपत्ति की मांग है भी कि नहीं) ताकि सार्वजनिक संपत्ति का सबसे सही मूल्य सुनिश्चित किया जा सके।
इस ‘डिस्क्रीशनरी अलॉटमेंट’ की व्यवस्था 2014 से पहले की आवंटन पद्धति का एक नया संस्करण है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने "मनमाना" कहा था।। तब भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) और सुप्रीम कोर्ट ने कोयला ब्लॉकों की नीलामी करने के बजाय, उन्हें एक सरकारी समिति के द्वारा आवंटित करने की वजह से सरकार को हो रहे राजस्व के नुकसान की ओर ध्यान दिलाया था। बीजेपी तब विपक्ष में थी, और उसने इसे ‘कोयला घोटाला’ करार दिया था।
भारतीय प्रबंधन संस्थान, लखनऊ में सहायक प्रोफेसर प्रियांशु गुप्ता ने द कलेक्टिव को बताया, “1990 के दशक में जब डिस्क्रीशनरी अलॉटमेंट की प्रक्रिया शुरू हुई, तब देश को ऊर्जा उत्पादन बढ़ाने की जरूरत थी। देश को अधिक कोयला चाहिए था और उससे राजस्व कमाना लक्ष्य नहीं था। अब स्थिति बहुत अलग है। हम ऐसे युग में प्रवेश कर रहे हैं जहां हमारे पास कोयले की अधिकता है। सरकार को कोई आवश्यकता नहीं है कि वह निजी कंपनियों को केवल इसलिए ब्लॉक देदे क्योंकि पर्याप्त बोलियां प्राप्त नहीं हो सकीं। इससे पता चलता है कि मंत्रालय प्राकृतिक संसाधनों को किसी भी कीमत पर बेचने के लिए बेताब है।”
भ्रष्टाचार विरोधी लहर पर सवार होकर सत्ता में आई मोदी सरकार ने अपने चुनाव अभियान में “कोयला घोटाले” का जोरशोर से जिक्र किया था। मोदी के सत्ता में आने के तुरंत बाद, अगस्त 2014 में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया, जिसने पिछले कुछ वर्षों में आवंटित 204 कोयला ब्लॉकों का आवंटन रद्द कर दिया। इस आदेश ने आवंटनों में पारदर्शिता की कमी को उजागर किया, जो एक “स्क्रीनिंग कमेटी” द्वारा बिना नीलामी के आवंटित किए गए थे।
2015 आते-आते मोदी सरकार ने "पारदर्शी" तरीके से इन 204 कोयला ब्लॉकों की नीलामी के लिए एक नया कानून बनाया। जो ब्लॉक इन 204 की सूची में नहीं थे उनकी नीलामी एक अलग कानून के तहत की जाती है। इस व्यवस्था के तहत सरकार ने कुछ ब्लॉकों को निजी कंपनियों को नीलाम किया और कुछ को सरकारी कंपनियों को आवंटित किया। हालांकि कोयला ब्लॉकों के लिए बोली लगाने वाली निजी कंपनियों पर फिर भी कुछ प्रतिबंध थे, लेकिन 2020 में इन प्रतिबंधों को पूरी तरह से हटा दिया गया।
सरकार ने 2015 में दावा किया था कि उसकी नीलामी व्यवस्था से सरकारी खजाने में 3 लाख करोड़ रुपए से अधिक आएंगे। पिछले कुछ सालों में सरकार नीलामी की शर्तों में कटौती करती रही, जिससे निजी कंपनियों के लिए कम कीमतों पर कोयला ब्लॉक हासिल करना आसान हो गया। ऐसा तब हुआ जब सरकारी अधिकारी कह रहे थे कि देश की कोयला उत्पादन क्षमता जरूरत से ज्यादा है।
मोदी सरकार के पारदर्शिता के दावों को पांच साल भी नहीं हुए थे जब केंद्र ने अपना रुख पलट दिया और निजी कंपनियों को कोयला ब्लॉक आवंटित करने की एक समानांतर व्यवस्था बनाई जिसकी कमान सचिवों की अधिकार प्राप्त समिति के पास थी। इस समिति का गठन मई 2020 में किया गया था। एक बार फिर, नौकरशाहों का एक समूह कोयला ब्लॉकों का आवंटन कर रहा है। वह इसका भी निर्णय कर सकते हैं कि नीलामी में एक ही बोली प्राप्त होने पर भी बोलीदाता कंपनी को ब्लॉक आवंटित करना है या नहीं। यदि किसी ब्लॉक के लिए एक ही बोली लगाई जाती है तो सरकार की कमाई स्वाभाविक रूप से कम होगी, इसकी पुष्टि स्वतंत्र शोधकर्ताओं के विश्लेषण से भी होती है। इस प्रक्रिया ने 2014 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का प्रभाव खत्म कर दिया है।
कोयला आवंटन में इस नई खामी से कंपनियों के लिए मिलीभगत करना आसान हो सकता है। जैसा कि द कलेक्टिव ने दिखाया है, पहले कंपनियों को प्रतिस्पर्धा कम करने के लिए शेल कंपनियों के विस्तृत नेटवर्क बनाने करने पड़ते थे। जबकि वास्तविक कंपनियां डमी के तौर पर नीलामी में भाग लेती थीं। कोयला मंत्रालय और कैग ने अतीत में ऐसे मामलों को उजागर किया था जहां प्रतिस्पर्धियों की मिलीभगत ने बोली को प्रभावित किया। विशेषज्ञ जिन से द कलेक्टिव ने बात की चेतावनी देते हैं कि अब एक कंपनी को न्यूनतम लागत पर कोई ब्लॉक हासिल करने के लिए बस इतना सुनिश्चित करना है कि वह नीलामी में बोली लगाने वाली एकमात्र कंपनी हो।
जैसा कि श्रृंखला के पहले भाग में हमने दिखाया, एसोसिएशन ऑफ पावर प्रोड्यूसर्स ने भारत के सबसे संवेदनशील वनों में से एक सिंगरौली में मारा II महान कोयला ब्लॉक खोलने के लिए सरकार से पैरवी की। जब वह इस प्रयास में सफल रहे, तो एसोसिएशन के केवल एक सदस्य -- अडानी समूह -- ने ब्लॉक के लिए बोली लगाई। कलेक्टिव स्वतंत्र रूप से यह सिद्ध नहीं कर सकता कि क्या एसोसिएशन के सदस्यों ने मिलीभगत करके नीलामी में प्रतिस्पर्धा खत्म की थी।
सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर के निदेशक नंदिकेश शिवलिंगम ने द कलेक्टिव से कहा, "2014 में पूरे कोयला घोटाले का आधार यह था कि सरकार ने बिना मूल्य निर्धारण के ब्लॉक देकर बहुत सारा पैसा गंवाया है। इस विचार का क्या हुआ कि कोयले की नीलामी पारदर्शी तरीके से की जानी चाहिए? यह विचार धीरे-धीरे असफल होता दिख रहा है।”
पुरानी व्यवस्था की वापसी
मोदी सरकार आने के बाद जब पहली बार कोयला खदानों की नीलामी हुई तो इसे लेकर काफी उत्साह था और कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा देखने को मिली।
जनवरी 2015 में एक कार्यक्रम के दौरान तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, "हमारा ध्यान कोयला ब्लॉकों सहित प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में पारदर्शिता लाने पर है।" उन्होंने कहा कि "निवेश को फिर से बढ़ाने और ऊंची विकास दर प्राप्त करने के लिए जिस विश्वास और भरोसे की जरूरत होती है, सरकार उसे फिर से कायम करने में सफल रही है।"
लेकिन बाद की नीलामियों में बोली लगाने वालों की संख्या घटती रही, और परिणामस्वरूप सरकार की कमाई भी कम होती गई।
पहली पांच किस्तों में सरकार ने 71 ब्लॉक नीलामी के लिए रखे, जिनमें से 31 बिके। चूंकि नीलामी को लेकर उस तरह का उत्साह देखने को नहीं मिल रहा था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाणिज्यिक कोयला खनन की शुरुआत की, और कहा कि वह कोयला क्षेत्र को "दशकों के लॉकडाउन" से मुक्त कर रहे हैं। इसी दौरान देश में कोविड-19 महामारी की पहली लहर तबाही मचा रही थी।
वाणिज्यिक खनन शुरू होने के पहले, केवल वे कंपनियां नीलामी में भाग ले सकती थीं जिनके पास कोयला खनन का कोई विशेष उद्देश्य था, जैसे उनके थर्मल पावर प्लांट को ऊर्जा देना। वाणिज्यिक कोयला खनन के तहत मोदी सरकार ने कोयला नीलामी में भाग लेने पर लगे सभी प्रतिबंध हटा दिए।
सरकार ने नीलामी के मापदंडों को भी बदल दिया। मोदी सरकार की पिछली कोयला व्यवस्था के तहत, जिन कंपनियों के पास कैप्टिव पावर प्लांट (ऐसे प्लांट जिनसे वह अपनी जरूरत की बिजली पैदा करते हैं) थे, और जो कोयला ब्लॉक के लिए सबसे अधिक भुगतान करने को तैयार होती थीं, उन्हें विजेता घोषित किया जाता था। लेकिन कमर्शियल माइनिंग शुरू होने के बाद, कंपनियों को राज्य सरकार को कमाई का एक हिस्सा देना होता है, और जो कंपनी सबसे अधिक राजस्व बांटने के लिए तैयार होती है, उसे ब्लॉक आवंटित किया जाता है।
कंपनियों के लिए यह डील और सरल बनाने के लिए सरकार ने वाणिज्यिक नीलामी की पहली किस्त में 'फ्लोर प्राइस', यानी बोली लगाने की न्यूनतम राशि भी कम कर दी।
नीलामी की प्रक्रिया आसान बनाने के बावजूद प्रतिक्रिया फीकी रही। कई कोयला ब्लॉक बिके नहीं और कई अन्य के लिए केवल एक ही कंपनी ने बोली लगाई।
सिंगल बिडर की समस्या को हल करने के लिए सरकार ने "रोलिंग ऑक्शन" की शुरुआत की, जिसके तहत सिंगल बिडर वाले ब्लॉकों को अगले चरण में नीलामी के लिए रखा जाता था।
वाणिज्यिक कोयला नीलामी व्यवस्था की घोषणा करने से पहले ही सरकार ने सचिवों की एक अधिकार प्राप्त समिति का गठन कर दिया था, जिसमें कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस, कानूनी मामलों और आर्थिक मामलों के विभागों के सचिव थे। इसका काम था "कई चरणों की नीलामी में भी एक ही बोली प्राप्त होने पर कोयला खदान के आवंटन के संबंध में उचित निर्णय लेना।"
नीलामी के दो चरण होते हैं -- तकनीकी योग्यता और फाइनेंशियल बिडिंग। तकनीकी चरण में बोलीदाता जो प्रारंभिक पेशकश करते हैं, उसके आधार पर उनकी रैंकिंग होती है। मानक निविदा दस्तावेज़ कहता है कि नीलामी के लिए कम से कम दो प्रतिभागियों को तकनीकी चरण पार करना होगा। यदि दो से कम बोलीदाता होते हैं तो नीलामी रद्द कर दी जाती है।
हालांकि, जो ब्लॉक पहली किस्त में नहीं बिके, उनकी नीलामी के दूसरे प्रयास के लिए जारी निविदा दस्तावेज़ में यह न्यूनतम आवश्यकता ख़त्म कर दी गई है। अब, सिंगल बिडर भी दूसरे चरण तक जा सकता है और उनका प्रारंभिक प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है। मामला अधिकार प्राप्त समिति को भेजा जाता है, जो फिर निर्णय लेती है कि ब्लॉक आवंटित किया जाए या नहीं।
इस अधिकार प्राप्त समिति ने 17 अगस्त 2022 को आदेश दिया कि गोंडबहेरा उझेनी पूर्व ब्लॉक अडानी की सहायक कंपनी एमपी नेचुरल रिसोर्सेज प्राइवेट लिमिटेड को आवंटित किया जाना चाहिए।
अडानी ने यह ब्लॉक बिना किसी प्रतिस्पर्धा के, राजस्व का केवल 5% हिस्सा देकर हासिल कर लिया। इसके मुकाबले नीलामी की पहली किस्त में किसी भी बिडर के लिए न्यूनतम राजस्व हिस्सेदारी 4% तय की गई थी। गोंडबहेरा उझेनी पूर्व उन दो ब्लॉकों में से एक था जिनको बार-बार नीलामी में रखे जाने पर भी उनके लिए केवल एक ही बोली प्राप्त हुई। इसके बाद अगस्त 2022 में समिति ने इन दो ब्लॉकों का आवंटन कर दिया। दूसरा ब्लॉक था टोकिसुड II, जो ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी माइनिंग प्राइवेट लिमिटेड नामक कंपनी को आवंटित किया गया।
पिछले तीन सालों में इन दोनों ब्लॉकों समेत कम से कम 12 ऐसे मामले हैं जहां सरकार ने सिंगल बिडर को ब्लॉक सौंप दिए।
“पहले आपके पास एक स्क्रीनिंग कमेटी थी जो ब्लॉक आवंटित करती थी। अब एक अधिकार प्राप्त समिति है। काम वही है लेकिन नाम बदल गया है,” आईआईएम लखनऊ के प्रियांशु गुप्ता ने द कलेक्टिव को बताया।
इस आवंटन व्यवस्था के साथ ही देश के सामने फिर वही समस्या उत्पन्न हो गई जिसे सुप्रीम कोर्ट और बाद में बने कानूनों ने हल करने का प्रयास किया था: यह सुनिश्चित करना कि संसाधनों का बेहतर मूल्य मिले।
प्रियांशु गुप्ता ने नीलामी की चार किस्तों में बोलीदाताओं द्वारा प्रस्तावित राजस्व हिस्सेदारी का विश्लेषण किया है। इससे पता चलता है कि बोलीदाताओं की संख्या कम होने से सरकार को मिलने वाला हिस्सा भी कम हो गया। सिंगल बिडर वाले ब्लॉकों में सरकार को मिलने वाली हिस्सेदारी सबसे कम थी।
“अगर कंपनियों की कोयला ब्लॉकों में रुचि नहीं है तो मांग स्पष्ट रूप से कम होगी। मांग बढ़ने का इंतजार करने के बजाय, मंत्रालय ने फैसला किया है कि जो भी आए उसे ब्लॉक दे दिया जाए,” शिवलिंगम ने कहा।
“फिलहाल हमें हर साल लगभग 800-900 मिलियन टन कोयले की जरूरत है। लेकिन अगर आपने लगभग दो बिलियन टन के कोयला ब्लॉक आवंटित कर दिए हैं तो जाहिर तौर पर मांग ज्यादा नहीं होगी,” उन्होंने कहा।
देश की कोयले की जरूरत बिजली की मांग पर निर्भर करती है -- बिजली क्षेत्र कुल कोयले का 85% उपभोग करता है। भारत की 75% बिजली कोयले से पैदा होती है।
2018 में सरकारी कंपनी कोल इंडिया द्वारा प्रकाशित एक दस्तावेज़ कोल विजन 2030 में कहा गया है कि 2017 तक सरकार ने जितने ब्लॉक आवंटित किए थे वह 2030 तक भारत की बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त थे।
हालांकि, महामारी और वैश्विक आर्थिक संकट के कारण बिजली की जरूरतें बदल गईं हैं। 2023 में आदित्य लोला, शिवलिंगम, गुप्ता और सुनील दहिया ने देश में बिजली मांग पर एक पेपर प्रकाशित किया। इसमें बताया गया है कि यदि बिजली की मांग हर साल 6% की अनुमानित दर से बढ़े, तो 2030 तक बिजली की मांग को पूरा करने के लिए लगभग 1,200 मिलियन टन कोयले की जरूरत होगी।
उन्होंने कहा कि सरकार ने इतने कोयला ब्लॉक आवंटित कर दिए हैं जो 2030 तक 2,200 मिलियन टन कोयले का उत्पादन करने में सक्षम हैं!
इससे पहले, सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर ने कहा था कि "पहले से आवंटित कोयला ब्लॉकों की क्षमता 2030 में अपेक्षित मांग से लगभग 15-20% अधिक है"।
कोयला मंत्रालय इससे अनभिज्ञ नहीं है। इस साल मार्च में कोयला मंत्री ने मीडिया से कहा था कि भारत 2026 तक कोयले का निर्यात शुरू करने के लिए तैयार है।